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५४. पतितोंके लिए


मुझे कोई तीन साल पहले बारीसालमें हमारी विषय-वासनाकी शिकार बनी पतित बहनोंसे मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था।[१]उनमें से कुछने मुझसे कहा था: "हमें दो से तीन रुपयेतक रोज आमदनी होती है। आप हमें ऐसा कोई काम बताइए जिससे हमें इतनी आमदनी हो जाया करे।" एक क्षणके लिए तो मेरा कलेजा बैठ गया, पर तुरन्त ही मैं सँभल गया और कहा, "नहीं, बहनो, मैं तुम्हें ऐसा तो कोई काम नहीं बता सकता जिससे तुम्हे दो या तीन रुपये रोज मिल सके; पर इतना जरूर कहूँगा कि तुम यह पेशा छोड़ दो, भले ही तुम्हे भूखो मरना पड़े। हाँ, चरखा एक ऐसी चीज है, अगर तुम इसे अपनाओ तो यह तुम्हारी मुक्तिका साधन बन सकता है।"

ये पतित बहनें तो भारतके पतित समाजका एक अल्पांश-मात्र हैं। उड़ीसाके नर-कंकाल भी एक अर्थमें इसी पतित समाजके अंग हैं। पतित बहनें जिस प्रकार हमारी विषय-वासनाकी शिकार हो रही हैं, उसी तरह ये उड़ीसाके हाड़-चामके पुतले हमारे अज्ञानके शिकार हो रहे हैं। हमारी इन्द्रियोंकी पाशविक तृप्ति नहीं, बल्कि धनकी भोग-लालसाने उन्हें अस्थिचविशिष्ट कर दिया। उनके कलेजेके खूनसे हम मालामाल हो रहे हैं।

पर, ईश्वरको धन्यवाद है कि अब हम मध्यवर्गके पढ़े-लिखे लोग अपनी पतित बहनों और क्षुधा-पीड़ित भाइयोंके दुःखोंको अपना दुःख बनाने के लिए उतावले हो रहे हैं। हम स्वराज्य इसीलिए चाहते है कि जिससे उन्हें जीवन मिले। पर हम सब लोग गाँवोंमें जाकर देहातियोंकी सहायता नहीं कर सकते। हमारी पतित बहनोंका चित्र हमें चौबीसों घंटे इस बातकी याद दिलाता रहता है कि हमें अपना चरित्र निर्मल, निष्कलंक बनाना चाहिए। तब सवाल है कि हम कौन-सा उपाय करें जिससे हमें बराबर उनका खयाल बना रहे, उनकी दुर्दशासे हमारा हृदय व्यथित होता रहे? हर रोज उनके लिए हमें क्या करना उचित है? हम तो इतने कमजोर हैं कि जो कमसे-कम हो, उतना-भर करना चाहते हैं। तो वह कमसे-कम भी क्या है जो हम कर सकते हैं? मुझे तो सिवा चरखेके और कुछ नहीं दिखाई देता। वह काम ऐसा होना चाहिए जिसे अपढ़ और पढ़े-लिखे, भले और बुरे, बालक और बूढ़े, स्त्री और पुरुष, लड़के और लड़कियाँ, कमजोर और ताकतवर--फिर वे किसी जाति और धर्मके हों--कर सकें। फिर वह ऐसा होना चाहिए जो सबके लिए एक-सा हो। तभी वह फलदायी हो सकता है। चरखा ही एक ऐसी वस्तु है जिसमें ये सब गुण हैं। अतएव जो कोई स्त्री या पुरुष रोज आध घंटा चरखा कातता है वह जन-समाजकी भरसक अच्छीसे-अच्छी सेवा करता है। यही नहीं, वह भारत-भूमिके पतित मानव-समाजकी सेवा तहेदिल और सेवाभावसे करता है और इस तरह स्वराज्यको दिन-दिन नजदीक लाता है।

  1. देखिए खण्ड २१, पृष्ठ १०८-१०।