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कुछ काम बन सकता है, पर मेरा स्वभाव ही ऐसा है कि मैंने जीवनमें सदा यही माना है कि सच्चा विकास तो भीतरसे ही होता है। यदि भीतरसे ही प्रतिक्रिया न हो तो बाहरी साधनोंका प्रयोग बिलकुल निरर्थक है। यदि शरीरकी भीतरी शक्तियाँ पूर्णताको पहुँच गई हों तो बाहरी प्रतिकूल परिस्थितियों और प्रभावोंका उसपर कुछ असर नहीं होता और न उसे बाहरी साधनों की सहायताकी ही जरूरत रहती है। एक बात और है, जब आन्तरिक अवयव सुदृढ़ हों तो बाहरी सहायता अपने-आप उनकी ओर खिंचती हुई चली जाती है। इसीसे यह कहावत पड़ गई है कि ईश्वर उन्हींका सहायक होता है जो अपनी सहायता आप करते हों। अतएव यदि हम सब मिलकर भीतरी पूर्णता के लिए प्रयत्न करना चाहते हैं तो हमें दूसरी किसी हलचल में पड़नेकी बिलकुल जरूरत नहीं। पर हम चाहे ऐसा करें या न करें, कमसे कम कांग्रेसको तो भीतरी विकासतक ही अपने कामकी सीमा बाँध लेनी चाहिए।

अच्छा, तो अब ऐसे विकास के लिए न्यूनतम समान कार्यक्रम क्या हो सकता है? मैं बराबर कहता आया हूँ कि वह है चरखा और खादी, तमाम धर्मोकी एकता और हिन्दुओं द्वारा छुआछूतका परित्याग। आखिरी दो बातोंसे शायद ही किसीका मतभेद हो। पर मैं जानता हूँ कि चरखेके सम्बन्धमें अर्थात् सारे राष्ट्रके लिए चरखा कातने और खादी धारण करने की आवश्यकताके तथा चरखेको इतना व्यापक बनानेकी विधिके सम्बन्धमें अब भी कुछ मतभेद है। अन्यत्र मैं इस बातको दिखा चुका हूँ कि हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व के लिए खादी कितनी आवश्यक है और उसके उत्पादन के लिए घर-घर चरखा कातना ही एकमात्र उपाय है।

कब खत्म होगी?

पर लोग पूछते हैं कि यह "अनिश्चयकी स्थिति आखिर खत्म कब होगी?" मेरा जहाँतक ताल्लुक है; मेरी तरफसे तो ख़त्म ही समझिए। मुझमें लड़नेकी इच्छा नहीं रह गई है। आगामी कांग्रेस अधिवेशनमें स्वराज्यवादियोंसे लड़नेका मेरा कोई इरादा नहीं है और न मैं नरमदलवालोंसे ही लड़ना चाहता हूँ। मेरी कोई शर्त नहीं है या अगर कोई शर्त है तो वह है मेरा भिक्षापात्र। मैं स्वराज्यवादियों, नरमदलवालों, लिबरलों और कन्वेन्शनवालों---सबसे प्रार्थना करता हूँ कि वे इस भिखारीकी झोलीमें अपना खुदका काता हुआ सूत डाल दें। यही है मेरी मनोदशा। अतएव मैं तो राष्ट्रके तमाम कार्यकर्त्ताओंको सलाह दूँगा कि वे चरखा कातने, एकता बढ़ाने और जो हिन्दू हों वे छुआछूत दूर करने में ही अपनी सारी ताकत लगा दें।

लेकिन अपरिवर्तनवादी मुझसे पूछते हैं, "ऐसी हालत में कांग्रेस कमेटियोंका क्या होगा?" मेरी धारणा तो यह है कि हमारा सारा संविधान छिन्न-भिन्न हो गया है। हमारे पास नाम लेने लायक मतदाता भी नहीं हैं और जहाँ-कहीं रजिस्टरोंमें उनकी थोड़ी-सी तादाद दिखाई भी देती है तो ये वे लोग नहीं हैं जो कांग्रेसकी कार्यवाहियों में उत्साह के साथ दिलचस्पी लेते हैं। ऐसी हालत में हम स्वयंभू मतदाता और स्वयंभू प्रतिनिधि हैं। जब मतदाताओंकी यह दशा है, तब उन जगहोंपर कटुता पैदा हुए बगैर नहीं रह सकती, जहाँ एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार खड़े होंगे।

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