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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

निष्पक्षता तभी सम्भव है जब कि मतदाताओंकी तादाद बहुत बड़ी हो, वे सब बातोंको अच्छी तरह समझते हों और स्वतन्त्र-रूपसे खुद किसी बातका फैसला कर सकते हों। इसलिए मेरी यही सलाह है कि जहाँ-कहीं जरा भी संघर्षकी सम्भावना हो और मत दोनों ओर बराबर-बराबर बँटा दिखाई दे, वहाँ अपरिवर्तनवादियोंको चाहिए कि उम्मीदवारीसे हट जायें। जहाँ-कहीं संघर्षकी सम्भावना न हो तथा जहाँ मत बहुत भारी तादादमें उनके पक्षमें हो, वहाँ वे पदाधिकारी बने रहें या अपना बहुमत बनाये रखें। किसी तरहकी चालाकी या धोखा-धड़ीसे काम न लिया जाये। मतदाताओंके साथ चालाकी बरतना ऐसी-वैसी बात नहीं है। कार्यकर्त्तागण ऐसा करके अपने सिरपर एक भारी जिम्मेदारी लेते हैं। बहुमत संचालित सरकारोंके लिए भ्रष्टाचार विनाशकारी साबित होता है। ऐसी हालतमें जो इन बातोंको ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं, उन्हें ऐसे तरीकोंसे दूर रहना चाहिए।

सभापतिके बारेमें?

कांग्रेसका सभापति कौन होगा, यह भी बहुतोंके लिए शशोपंजका कारण बना हुआ है। मुझे दुःख है कि सार्वजनिक जीवनमें फिरसे लौटनेके बादसे मैं तमाम अनिश्चय और चिंताकी स्थिति पैदा होनेका कारण बन रहा हूँ। मुझे इस स्थितिपर बड़ा खेद है, पर किया क्या जाये? जिस बातकी कुछ दवा नहीं हो सकती, उसे सहनेमें ही भलाई है। अभीतक मुझे पता नहीं कि मेरी स्थिति क्या है। मैं ऐसा सभापति होना नहीं चाहता जिससे देशमें फूट फैले। मैं उसी अवस्थामें इस गौरवको स्वीकार करना चाहता हूँ जब वास्तवमें उसके द्वारा देशकी कुछ भी सेवा हो सकती हो। बात यह है कि मैं इन दलबन्दियोंसे उकता गया हूँ। जब मैं यरवदा जेलमें था तब मैंने जर्मन कवि गेटेका 'फॉस्ट' नामक नाटक दुबारा पढ़ा था। बरसों पहले एक बार मैंने उसे पढ़ा था। पर उस समय उसकी कुछ भी छाप मेरे चित्तपर नहीं पड़ी थी। गेटे के सन्देशको मैं ग्रहण नहीं कर पाया था। मैं नहीं कह सकता कि अब भी मैं उसे पूरा-पूरा ग्रहण कर पाया हूँ। हाँ, मैं उसे थोड़ा-बहुत समझ जरूर पाया है। उसकी एक स्त्री पात्र है, मार्गरेट। उसका हृदय दु:ख और विषादसे व्याकुल रहता है। उसे चैन नहीं पड़ता, शान्ति नहीं मिलती। अपने क्लेशसे छुटकारेका कोई उपाय नहीं सूझ पड़ता। वह चरखेका आश्रय ग्रहण करती है और चरखा मानो अपने संगीतके द्वारा उसकी व्यथा और वेदनाको बाहर निकालता है। मैं इस पूरी कल्पनासे बहुत प्रभावित हुआ। मार्गरेट अपने कमरेमें अकेली है। उसका हृदय दुविधा और निराशासे टूक-टूक हो रहा है। कवि उसे कमरेके एक कोनेमें पड़े चरखेके पास भेजता है। यह बात नहीं कि सान्त्वनाके लिए वहाँ दूसरे साधन न थे। बढ़िया चुनी हुई पुस्तकोंका पुस्तकालय था, कुछ सुन्दर चित्र भी थे और एक हस्तलिखित और सचित्र 'बाइबिल' भी वहाँ रखी हुई थी। पर न तो चित्र, न वे पुस्तकें और न वह 'बाइबिल' ही उसे तसल्ली दे सकी। वह बरबस चरखेके नजदीक जाती है और जो शान्ति उसके पास आनेसे इनकार करती थी वह अनायास उसे मिल जाती है। उसकी वे हृदयद्रावक पंक्तियाँ यहाँ दी जाती हैं: