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मेरी शान्ति तिरोहित हो गई है, मेरा हृदय उद्विग्न है।
मैंने उसे खो दिया है, और जितना ही खोजती हूँ,
खोनकी अनुभूति उतनी ही गहरी होती जाती है।
यह स्थान, जहाँ वह नहीं है, मेरे लिए श्मशानकी
भाँति निर्जीव हो गया है।
मेरा जीवन, मानो एक अपार निरानन्द है,
जहाँ प्रकाशकी एक रेखातक नहीं है।
मेरा मन व्याकुल है और मेरा हृदय टूक-टूक हो रहा है।
मेरी शान्ति तिरोहित हो गई है, मेरा हृदय उद्विग्न है;
क्योंकि मेरा प्रिय मुझसे बिछुड़ गया है।

आप इनके कुछ शब्दोंको इधर-उधर कर दीजिए--बस ये पंक्तियाँ मेरी मानसिक स्थितिका चित्र आपके सामने खड़ा कर देंगी। जान पड़ता है, मैं भी अपने प्रियतमसे हाथ धो बैठा हूँ और ऐसा मालूम होता है कि मैं इधर-उधर भटक रहा हूँ। मुझे अनुभव तो ऐसा होता है कि मेरा सखा निरन्तर मेरे आसपास है, पर फिर भी वह मुझसे दूर प्रतीत होता है क्योंकि वह मुझे ठीक-ठीक राह नहीं दिखा रहा है और स्पष्ट निर्देश नहीं दे रहा है। बल्कि उलटा, गोपियोंके छलिया नटखट कृष्णकी तरह वह मुझे चिढ़ाता है, कभी दिखाई देता है, कभी छिप जाता है और कभी फिर दिखाई दे जाता है। जब मुझे अपनी आँखोंके सामने स्थिर और निश्चित रूपसे प्रकाश दिखाई देगा, तभी मुझे अपना पथ साफ-साफ मालूम होगा और तभी मैं पाठकोंसे कहूँगा कि आइए, अब मेरे पीछे-पीछे चलिए।

तबतक मैं सिर्फ इतना ही करूँगा कि अपना चरखा लेकर बैठ जाऊँगा और उसीके सम्बन्धमें कहता-सुनता रहूँगा या लिखता-लिखाता रहूँगा और पाठकोंको उसकी आवश्यकता और उपयोगिता जँचाता रहूँगा। अब, जब कि मैं सब तरह अकेला पड़ गया हूँ, चरखा ही मेरा मित्र है, यही मुझे तसल्ली देनेवाला है, मेरा अमोघ शान्तिदाता है। परमात्मा करे, पाठकोंके लिए भी यह ऐसा ही साबित हो। मेरे एक और मित्र भी हैं, जो कि मार्गरेट और मेरी तरह दुःखाक्रान्त हैं। वे भी कहते हैं: "हमारे बड़े भाग्य है जो आपने हमें चरखा दे रखा है। मुझसे जितना होता है, चरखा कातकर अपने दिलको तसल्ली दे लिया करता हूँ।"

फिर नागपुर

डा० मुंजेने[१] मुझे चेताया है कि मैं नागपुरके हिन्दू-मुस्लिम तनाजेके बारेमें कुछ न लिखूँ। नागपुरमें अब तीसरी दफा हिन्दू-मुसलमान लड़ पड़े हैं और उन्होंने एक-दूसरेके साथ मारपीट की है। क्या उन्होंने इस बातका अहद कर लिया है कि अपने पशुबलको आजमाने के बाद ही वे शान्तिके साथ रहेंगे? क्या दोनोंके वैमनस्यको मिटानेका

  1. हिन्दू महासभाके नेता; १९३० में लन्दन गोलमेज सम्मेलनमें भाग लिया।