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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दूसरा कोई उपाय नहीं हो सकता? ऐसा मालूम होता है कि नागपुरमें दोनों दलोंमें बराबर-बराबर दम-खम है। इतना होते हुए भी उन्हें जल्द ही पता लग जायेगा कि हमेशा लट्ठबाजी करते रहनेसे कुछ हासिल नहीं होता। अवश्य ही नागपुरमें ऐसे कितने ही समझदार और तटस्थ हिन्दू और मुसलमान होंगे जो दोनोंके झगड़ोंका निपटारा करा दें और पिछली बुराइयोंको भुला दें। मन्दिरोंके अपवित्र किये जानेकी तरह, इक्के-दुक्के राहगीरोंपर टूट पड़नेका एक नया तरीका और निकल पड़ा है। बहुतेरे झगड़े तो क्षणिक होते हैं और उनका कारण होता है छोटी-मोटी बातोंमें बातका बढ़ जाना और लोगोंका भड़क उठना। लेकिन बेकसूर लोगोंपर टूट पड़ना तो यही दिखलाता है कि दोनों ओरसे ऐसी कोशिशें जानबूझकर और किसी खास तजवीजके मुताबिक हो रही हैं, पर जबतक दोनों दलवालोंकी तरफसे ठीक-ठीक और समाचार न मिलें, तबतक मुझे चपचाप सहन करना लाजिमी है। ऐसी अवस्थामें मैं सिर्फ इतनी आशा-भर कर सकता हूँ कि समझदार और तटस्थ लोग दोनों जातियोंमें राजी-रजामन्दीके साथ स्थायी शान्ति करा देने में कोई कसर न उठा रखेंगे।

आन्ध्रमें प्रगति

मैंने पूर्वी कृष्णा जिलेमें, जिसमें चार ताल्लुके शामिल है, हुए खादी-कार्यका विवरण पढ़ लिया है। स्थानीय खादी बोर्डने अपना कार्य रुई इकट्ठा करनेसे शुरू किया। यह उचित ही था। उसने रुई धुनने और पूनियाँ बनाने, पूनियोंको कताई करनेवालोंमें बाँटने और कते हुए सूतको इकट्ठा करनेका काम उठाया। बोर्डने जिलेमें ही खादीकी बिक्रीका इन्तजाम भी किया। इसके लिए उसने वहाँ कई खादी भण्डार खोले हैं। कताई करनेवालोंमें ब्राह्मण, मुसलमान, कप्पू और ताड़ी निकालनेवाले शामिल हैं। ये प्रतिमाह करीब १८० पौंड सूत कातते हैं। उनके सूतका नम्बर १५ से ३० तक होता है और उसकी कीमत औसतन प्रति पौंड २ रुपये होती है। उनके पास बतौर पूँजी ७,२५० रुपये थे। रुई और पूनियों सहित कुल बिक्री ३०,४०० रुपयेकी हुई। यों अपनी जगहपर यह ठीक है, लेकिन रिपोर्टमें जितनी अवधिका हवाला है, उस अवधिको देखते हुए यह परिणाम बहुत अच्छा नहीं है। ऐच्छिक कताई-आन्दोलनसे काम करनेका तरीका ही बिलकुल बदल जाता है। पैसा लेकर कताई करनेवालोंके जरिये भी सूतका उत्पादन-कार्य तो जारी रखा ही जाये। लेकिन अब हमें केवल कुछ सौ चरखे चलनेसे ही सन्तोष नहीं होना चाहिए। फिर भी यह आन्दोलन जन-साधारणमें फैले, इसमें थोड़ा समय तो लगेगा ही। जब कांग्रेसी लोग कुशल कतैये हो जायेंगे तब वे राष्ट्रको केवल आधा घंटा देकर ही सन्तुष्ट नहीं होंगे, बल्कि उनमें से कुछ लोग गाँवोंमें विशेषज्ञोंकी हैसियतसे जायेंगे और गाँवोंको आत्म-निर्भर इकाइयोंके रूपमें संगठित करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ४-९-१९२४