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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम सबको मोक्षके लिए "सूलीपर" चढ़ना है--आत्म-बलिदान करना है। 'पुत्र', 'पिता' और 'पवित्र आत्मा'--'बाइबिल' के इन शब्दोंका केवल वाच्यार्थ करनेसे मैं इनकार करता हूँ। इन सबमें रूपक हैं। इसी प्रकार 'गिरि-शिखरके उपदेश' (सर्मन ऑन द माउण्ट) को जिन मर्यादाओंमें बाँधनेका प्रयत्न किया जाता है, उन्हें भी मैं स्वीकार नहीं करता। 'न्यू टेस्टामेंट' में मुझे युद्धका कहीं समर्थन नहीं मिलता। ईसा मसीहको मैं संसारमें जितने उपदेशक और पैगम्बर हो गये हैं, उनमें सबसे यशस्वी पुरुषों में गिनता है। कहनेकी जरूरत नहीं कि 'बाइबिल' को मैं ईसाके जीवन और उपदेशका ऐसा विवरण नहीं मानता, जिसमें भूल न हो। इसी प्रकार मैं यह भी नहीं मानता कि 'न्यू टेस्टामेंट ' का एक-एक शब्द ईश्वरका अपना शब्द है। नये तथा पुराने टेस्टामेंटोंमें एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है। पुराने में कुछ गहन सत्य है, परन्तु मैं नयेको जितना आदर देता हूँ उतना पुरानेको नहीं। नयेको मैं पुरानेके उपदेशोंका विस्तृत संस्करण और कुछ बातोंमें पुराने के उपदेशोंको त्याग देनेवाला मानता हूँ। लेकिन नये 'टेस्टामेंट' को भी मैं ईश्वरका अन्तिम शब्द नहीं मानता। विश्वमें जो विकास-क्रम वस्तु-मात्रपर लागू होता है, धार्मिक विचार भी उसी विकासक्रमके अधीन हैं। केवल ईश्वर ही अव्यय है और उसका सन्देश अपूर्ण मनुष्यके माध्यमसे मिलता है। इसलिए माध्यम जितना शद्ध या अशद्ध होगा, उतनी ही मात्रामें सन्देशके शुद्ध या अशुद्ध होनेकी सम्भावना रहेगी। इसलिए मैं अपने ईसाई मित्रों और शुभ-चिन्तकोंसे आदरपूर्वक आग्रह करूँगा कि वे मुझे जैसा मैं हूँ, वैसा ही स्वीकार करें। जिस प्रकार मैं मुसलमान भाइयोंकी इस इच्छाका आदर करता हूँ और कद्र करता हूँ कि जैसा वे सोचते हैं, जैसे वे हैं, मैं भी वैसा ही सोचने लगूँ, वैसा ही बन जाऊँ; उसी प्रकार मैं ईसाई भाइयोंकी भी इस इच्छाका आदर और कद्र करता हूँ। मैं दोनों धर्मोको अपने धर्मकी तरह ही सच्चा मानता हूँ। परन्तु मुझे अपने धर्मसे पूरी तरह सन्तोष मिल जाता है। अपने विकासके लिए मुझे जो-कुछ चाहिए, वह सब उसमें है। मेरा धर्म मुझे यह नहीं सिखाता कि मैं ऐसी प्रार्थना करूँ कि दूसरे लोग मेरे धर्मके हो जायें। वह तो मुझे यह सीख देता है कि तुम प्रार्थना करो कि सब अपने-अपने धर्ममें रहकर पूर्णता प्राप्त करें। इसलिए मेरी प्रार्थना ईसाईके लिए सदा यह रही है कि वह अधिक अच्छा ईसाई बने और मुसलमानके लिए यह कि वह अधिक अच्छा मुसलमान बने। मुझे विश्वास है, मैं जानता हूँ कि ईश्वर हमसे यह पूछेगा, बल्कि आज भी पूछ रहा है कि हम कैसे हैं, हमारे काम कैसे है, यह नहीं कि हम किस दीनके माननेवाले हैं। उसके लिए तो कर्म ही सब-कुछ है। कर्म से रहित विश्वासका उसकी नजरोंमें कोई मोल नहीं है। उसके लिए तो कर्म ही विश्वासका सूचक है। लेकिन ईसाई भाइयोंने मेरे लिए जेलमें जिस ईसाई साहित्यका ढेर लगा दिया था, उसके अध्ययनसे मेरे मनमें जो विचार बने उन्हें और किसी कारणसे नहीं तो मेरे आध्यात्मिक कल्याणमें उनकी रुचिके लिए कृतज्ञता प्रकट करनेके लिए ही, कह देना आवश्यक था। इस विषयान्तरके लिए मैं पाठकोंसे क्षमा चाहता हूँ।