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जेलके अनुभव—११


जिन पुस्तकोंको पढ़े बिना मैं नहीं रह सकता था वे थीं, 'महाभारत' और 'उपनिषद्', 'रामायण' और 'भागवत्'। उपनिषदोंको पढ़नेसे वेदोंको मूल रूपमें पढ़कर वैदिक-धर्मके अध्ययनकी इच्छा जागृत हुई। उनकी उत्कट कल्पनाओंसे अपार आनन्द मिला और उनकी आध्यात्मिकतासे मेरी आत्माको शान्ति मिली। लेकिन मुझे यह भी कहना चाहिए कि उनमें से कुछमें ऐसी अनेक बातें थीं जिन्हें मैं प्रोफेसर भानुकी विस्तृत टीकाकी सहायताके बावजूद नहीं समझ सका और न ही उनमें रस ले सका; यद्यपि प्रोफेसर भानुने तो अपनी टीकामें सारा शांकरभाष्य और दूसरे कई भाष्योंका सार दे दिया है। 'महाभारत' के छुट-पुट अंशोंके अलावा इससे पहले मैंने इस ग्रन्थको कभी पढ़ा ही नहीं था। उलटे, मैंने उसके विरुद्ध राय बना ली थी (जो अब गलत साबित हुई है)। वह राय यह थी कि 'महाभारत' तो केवल रक्तपातके विस्तृत वर्णन और ऐसे विवरणोंसे भरा हुआ ग्रन्थ है जिन्हें पढ़कर नींद आने लगती है। 'महाभारत' के घनी छपाईवाले छः हजारसे ज्यादा पृष्ठोंको देखकर मैं घबराया था। परन्तु कुछ भागोंके सिवा वह इतना अधिक चित्ताकर्षक साबित हुआ कि एक बार शुरू कर देनेके बाद उस ग्रन्थको पूरा करनेको मैं अधीर हो गया। चार महीनेमें उसे पूरा करने के बाद मुझे महसूस हुआ कि 'महाभारत' की तुलना थोड़े-से सुन्दर जवाहरातवाले किसी खजानेके साथ नहीं की जा सकती। वह किसी ऐसी अक्षय खानके समान है, जिसे जितना गहरा खोदिए उतने ही कीमती रत्न उसमें से निकलते हैं। मेरे मतानुसार 'महाभारत' कोई इतिहास नहीं; इतिहासके रूपमें तो मैं उसे बेकारसा ग्रन्थ मानूँगा। उसमें तो रूपक द्वारा विश्वके सनातन सत्योंकी चर्चा की गई है। कविका आशय पुण्य और पाप, सत् और असत्, खुदा और शैतानके सनातन द्वन्द्वका वर्णन करना है और उस आशयके अनुकूल ही ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओंको ले-लेकर उसने उन्हें दैवी अथवा दानवी शक्तियोंके रूपमें चित्रित किया है। यह ग्रन्थ किसी महानदके समान है, जो आगेकी ओर बहता हुआ अनेक नदियोंको अपने में समेट लेता है, जिनमें कई मैली और गन्दी भी हैं। यह ग्रन्थ एक ही प्रतिभाकी अवधारणा है, परन्तु समय-समयपर उसमें इतने प्रक्षिप्त अंश मिल गये कि आज हमारे लिए यह कह सकना मुश्किल हो गया है कि क्या मूल है और क्या प्रक्षिप्त। ग्रन्थकी समाप्ति तो भव्य है ही। उसमें ऐहिक सत्ताकी नश्वरता प्रकट की गई है। गरीब भिखारी द्वारा अपना स्वल्प सर्वस्व, अन्तिम कौर भी दे डालनेवाले ब्राह्मणके हार्दिक बलिदानकी तुलनामें, पाण्डवोंका अन्तिम महायज्ञ भी कम पुण्यप्रद सिद्ध किया गया है। पुण्यशाली पाण्डवोंके भाग्यमें प्रखर शोक ही शेष बचा दिखाया गया है। कर्मवीर कृष्ण लाचार हालतमें मरते हैं। असंख्य और एकसे-एक बलशाली यादव अपने ही भ्रष्ट आचरणके कारण आपसी कलहमें कुत्तोंकी मौत मरते हैं। अजेय अर्जुन डाकुओंकी टोलीसे पराजित होते हैं, उनका गाण्डीव काम नहीं आता। पाण्डव युद्धके परिणाम-स्वरूप मिली हई गद्दी एक बालकको सौंपकर वानप्रस्थी होते हैं। स्वर्गारोहणमें एकको छोड़, सारे यात्रामें ही मर-खप जाते हैं। और धर्मराज युधिष्ठिरको भी इसलिए नरककी भयंकर दुर्गंध सहनी पड़ती है कि उन्होंने संकटके समय एक बार असत्य