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भाषण : पूनाकी सार्वजनिक सभामें


मैंने कर्नल मैडॉकसे[१] पूछा था, क्या आप अपने विद्यार्थियोंको खादी न पहनने देंगे? उन्होंने मुझे नहीं कहा कि तुम पागल हो। उन्होंने तो कहा कि यदि विद्यार्थी खादी पहनना चाहते हों तो मैं क्यों इनकार करने लगा? और श्रीमती मैडॉक तो विलायत जाते वक्त खादी साथ ले गई हैं। जो काम नहीं करना चाहता वह अनेक बहाने बनाता है। मना कोई नहीं करता—मनाई करती है केवल हृदयकी दुर्बलता। अच्छा, मान लें कि गांधी पागल है। मैं कहता हूँ देहातके लोग जो कपड़ा पहनते हैं, आप वह कपड़ा पहनें। क्या यह कहना पागलपन है? दूसरी बातोंके लिए आप चाहे मुझे पागल कहें, परन्तु यदि आप मुझे खादीके लिए पागल कहेंगे तो मैं कहूँगा कि कहनेवाला ही पागल है, क्योंकि मैं तो अनुभवकी बात करता हूँ। मैं कहता हूँ कि यदि आपसे और कुछ न हो सके तो आप गरीबोंपर कृपा करके कमसे-कम खादी जरूर पहनें। चम्पारन और उड़ीसामें लोगोंको चार पैसे रोज मिलनेमें भी साँसत पड़ती है। वहाँके लोग कच्चे चावल खाकर रहते हैं। उनके बदनमें हड्डी-चमड़ी भर रह गई है। आप उनपर रहम करके, उनके भीतर बसे ईश्वरके दर्शन करके २,००० गज सूत दें। मेरी आपसे यही प्रार्थना है।

'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है' लोकमान्य तिलकका यह सन्देश अधूरा है। वे यह कहना भूल गए कि उसको प्राप्त करनेका साधन खद्दर है।[२]

मैं तो हार गया हूँ। पं॰ मोतीलालजी और श्री केलकर यदि मुझसे कहें कि तुम कांग्रेससे निकल जाओ तो मैं निकल जाऊँगा—यह मेरी प्रतिज्ञा है। मैं वेलगाँवमें मत नहीं माँगूँगा। हम अपरिवर्तनवादी और परिवर्तनवादी दोनों मत माँग-माँगकर जनताको भ्रमित कर रहे हैं। मैंने अ॰ भा॰ कां॰ कमेटी [की अहमदाबादकी बैठक] में मत लिये। अब मैं देखता हूँ कि मैंने यह अपराध ही किया है। वहाँ मत लेना मेरा पागलपन था। मैं तो सिपाही ठहरा। मुझे समझना था कि लड़ाई तो वहीं लड़ी जा सकती है जहाँ कटुता पैदा न हो, दुश्मनी पैदा न हो। यदि पं॰ मोतीलालजी और श्री केलकरसे लड़ने में कटुता बढ़ती हो तो मैं उनके चरणोंमें सीस झुकाना बेहतर समझता हूँ। मेरे दिलमें यदि किसीके प्रति भी द्वेष हो, दुश्मनी हो, तो बेहतर है कि मैं साबरमतीमें डूब मरूँ। हाँ, जहाँ सिद्धान्तकी लड़ाई हो वहाँ मैं लड़े बिना नहीं मानता, परन्तु जहाँ दुश्मनीकी बू आती हो, वहाँ किस तरह लड़ूँ? जहाँ ऐसी लड़ाईसे तीसरे पक्षकी ताकत बढ़ रही हो, वहाँ मैं कैसे लड़ सकता हूँ? इसलिए मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं लड़ूँगा नहीं। पूना निवासियोंसे सिर्फ एक ही बात कहकर मैं विदा लूँगा। यह पागल बनिया आपको यह कहकर जा रहा है, "पूनावासियो, श्रद्धा रखो और स्वराज्य लो।"

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १४-९-१९२४
  1. शल्य चिकित्सक, जिन्होंने पूनाके सैसून अस्पतालमें १२ जनवरी, १९२४ को गांधीजीका ऑपरेशन किया था।
  2. यह अनुच्छेद बॉम्बे सीक्रेट एस्ट्रैक्टससे लिया गया है।