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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे विदत हुआ कि वे अपने हाथके लिखे पत्रोंकी नकलें भी अपने हाथसे टिशुपेपर बुकमें उतार कर रखते थे। वे बहुत-से पत्रोंका उत्तर तो लौटती डाकसे ही दे दिया करते थे। उनसे जब-जब मेरी मुलाकात हुई तब-तब मुझे प्रेम और माधुर्यके सिवा अन्य किसी बातका अनुभव नहीं हुआ। पिता जिस भाँति पुत्रसे बात करता है, दादाभाई उसी भाँति मुझसे बात करते थे और मैंने अन्य लोगोंके मुँहसे सुना है कि इस सम्बन्धमें उनका अनुभव भी वही था जो मेरा था। हर घड़ी उनके मनमें यही विचार घूमता रहता था कि हिन्दुस्तान किस तरह उन्नति कर सकता है और उसे स्वराज्य कैसे मिल सकता है। हिन्दुस्तानकी दरिद्रताका प्रथम परिचय मुझे दादाभाईकी पुस्तकसे[१] ही हुआ था। उसी पुस्तकसे मुझे यह मालूम हुआ कि हमारे देशमें लगभग तीन करोड़ लोगोंको भरपेट अन्न नहीं मिलता। आज तो ऐसे लोगोंकी संख्या उससे भी अधिक हो गई है। दादाभाईकी सादगीकी तो कोई सीमा ही न थी। सन् १९०८ में ऐसा हुआ कि किसीने उनकी विपरीत आलोचना की। मुझे वह आलोचना असह्य जान पड़ी। तथापि मैं यह सिद्ध न कर सका कि वह आलोचना असत्य है और मेरे मनमें भी उसको लेकर कुछ शंका उठी। मझे दादाभाई-जैसे महान् देशभक्तके बारेमें शंका करना पापपूर्ण लगा। इसलिए मैंने आलोचकसे अनुमति ले ली और मैं समय तय करके दादाभाईसे मिलने गया। उनके निजी कार्यालयमें जानेका मेरा यह पहला अवसर था। एक छोटी-सी कोठरी थी, जिसमें मात्र दो कुर्सियाँ थीं। यही उनका कार्यालय था। मैं उसमें घुस गया। उन्होंने मुझे एक खाली कुर्सीपर बैठनेका निर्देश किया; लेकिन मैं तो उनके पैरों के पास ही बैठ गया। उन्होंने मेरे चेहरेपर व्यथाके चिह्न देखे और मुझसे पूछा, "कहो, साफ-साफ कहो, तुम्हारे मनको कौन-सी बात व्यथित कर रही है?" मैंने बहुत ही संकोचपूर्वक निन्दकों द्वारा की गई उनकी आलोचना बताई और कहा, "इन बातोंको सुनकर मेरे मनमें भी शंका उत्पन्न हुई और चूँकि मैं आपकी पूजा करता हूँ, मैंने अपनी इस शंकाको आपसे छिपाना पाप समझा।" उन्होंने हँसकर मुझसे पूछा, "मैं तुमको क्या जवाब दूँ? क्या तुम इस बातको सच समझते हो?" जिस ढंगसे, जिस स्वरमें और जिस दु:खसे उन्होंने यह बात कही वह मेरे लिए पर्याप्त था। मैंने कहा, "अब मुझे कुछ नहीं सुनना है। मेरे मनमें अब कोई भी शंका नहीं रही है।" तथापि उन्होंने मुझसे इस सम्बन्धमें बहुत बातें कहीं। उनको यहाँ देनेकी जरूरत नहीं है। इस घटनाके बाद मुझे मालूम पड़ा कि दादाभाई फकीरोंका-सा सादा जीवन व्यतीत करनेवाले भारतीय है। फकीरीका अर्थ है कि मनुष्यके पास एक कौड़ी भी न होनी चाहिए; लेकिन उस समय इनकी हैसियतके लोग जैसा जीवन व्यतीत करते थे और जिस सुख और ऐश्वर्यका उपभोग करते थे, दादाभाईने उस सबको त्याग दिया था; यही फकीरीका सच्चा अर्थ है।

इस पवित्र पुरुषके जीवनसे मैंने और मुझ जैसे अन्य अनेक लोगोंने नियमितता, अनन्य देशभक्ति, सादगी, गरीबी और अथक परिश्रमका पाठ सीखा है। जिस समय सरकारकी टीका करना राजद्रोह माना जाता था और सत्य बात कहनेका कदाचित्

  1. पावर्टी ऐंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया।