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८०. पत्र: आनन्दानन्दको

आश्रम
८ सितम्बर, १९२४

भाई आनन्दानन्द,

तुम दिल्ली जा रहे हो तो कोई रामचन्द्रकी ओरसे अंगद बनकर नहीं और युधिष्ठिरकी ओरसे कृष्ण बनकर भी नहीं। तुम तो निषादराजकी-ओरसे रामकी कोई सेवा बन सके तो उसे करने, निषादराजको रामके पग धोनेकी अनुमति मिल जाये ऐसी व्यवस्था करने के लिए जा रहे हो; अथवा सुदामाका कोई सेवक कहीं जाये और सुदामाका नाम उज्ज्वल करे उसी तरह तुम मेरा नाम उज्ज्वल करनेके लिए जा रहे हो। तुम न्याय लेने नहीं, देने जा रहे हो। जड़भरतपर जो बीती सो उसने चुपचाप शान्तिपूर्वक सहन की। तुम्हें रुद्र बनकर नहीं जाना है, विष्णु बनकर जाना है। मौलानाको क्या करना चाहिए प्रश्न यह नहीं है; प्रश्न तो यह है कि मुझे अर्थात् तुम्हें क्या करना चाहिए। मैंने 'नवजीवन' में जितना तत्त्वज्ञान उँड़ेला है, उसका यहाँ अक्षरश: आचरण करनेका मेरा अडिग निश्चय है। उसमें तुम मन, वचन और कर्मसे मदद करना। तुम्हें और मुझे यही शोभा देगा, ऐसा मानकर उसपर अमल करना। मैं आजकल लोगोंको जिस बातपर अमल करनेकी सलाह दे रहा हूँ, इस मामले में मुझे भी वही करना चाहिए। हमें 'यंग इंडिया' तथा 'नवजीवन' को और अधिक नुकसान पहुँचाकर भी मुहम्मद अलीका काम करना है। उनके पत्रका प्रथम अंक तुम्हारे हाथों निकले, इससे अधिक अच्छी बात और क्या हो सकती है? समझना कि 'कॉमरेड' और 'हमदर्द' तुम्हारे ही या मेरे ही पत्र हैं। तुम यह सोचकर वहाँ जा रहे हो कि ये पहले हैं और 'यंग इंडिया' तथा 'नवजीवन' बादमें। मैं तुम्हारी हार्दिक विनय और चतुराईमें हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यकी अर्थात् स्वराज्यकी चाबी देखता हूँ। दिल्लीसे जल्दी वापस आनेका विचार ही न करना।

बापूके आशीर्वाद

[गुजरातीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई