पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/१६

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दस

साथ।" (पृष्ठ ४०)। मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरूको लिखे पत्रोंसे प्रकट होता है कि उन्हें पिता-पुत्र दोनोंकी कितनी चिन्ता लगी रहती थी। मोतीलाल नेहरूको अपने २ सितम्बरके पत्रमें उन्होंने लिखा, "पिछले पत्रकी तरह ही यह पत्र भी मैं जवाहरलालकी सिफारिश करनेके लिए ही लिख रहा हूँ। भारतमें बहुत अकेलापन महसूस करनेवाले जिन नौजवानोंसे मिलनेका मुझे मौका मिला है, वह उनमें से एक है। आपके मानसिक रूपसे उसका त्याग कर देनेके खयालसे मुझे बहुत दुःख होता है।...मैं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी तरहसे इस अद्भुत प्रेम-सम्बन्धमें बाधक नहीं बनना चाहता।" (पृष्ठ ६८-६९)। जवाहरलाल नेहरूके एक पत्रके उत्तरमें उन्होंने लिखा: "अभी तो पिताजी चिढ़े हुए हैं और मैं बिलकुल नहीं चाहता कि तुम या मैं उनकी झुँझलाहट बढ़नेका जरा भी मौका दें।...उन्हें दुखी देखकर मुझे दुःख होता है। उनकी चिढ़ जानेकी प्रवृत्तिसे साफ जाहिर है कि वे दुःखी हैं।" (पष्ठ १५७) और फिर रोमाँ रोलाँ को लिखे पत्र में वे मीराबहनके बारे में कहते हैं: "कैसी अमूल्य निधि आपने मुझे सौंपी है। मैं आपके इस अगाध विश्वासके योग्य बनने की कोशिश करूँगा। मैं कुमारी स्लेडकी हर तरसे सहायता करनेकी कोशिश करूँगा, ताकि वे पूर्व और पश्चिमके बीच एक लघुसेतु बन सकें।" (पृष्ठ ३४१)

इस खण्डमें आपको यत्र-तत्र गांधीजीकी निजी मान्यताओंकी स्वीकृति भी देखनेको मिलेगी। "मेरे जेलके अनुभव" में यह इतिहास-निर्माता इतिहासके अध्ययनके सम्बन्धमें अपने विचार व्यक्त करते हए निष्कर्ष-रूपमें कहता है: "जो शाश्वत है और इसलिए महत्त्वपूर्ण है, वह मात्र घटनाओंको दर्ज करनेवाले इतिहासकारकी पकड़में नहीं आता। सत्य इतिहाससे परे है।" (पृष्ठ १३६) धर्म और राजनीतिके प्रति अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा: "मेरे लिए मानवकी या प्राणिमात्रकी सेवा धर्म बन गई है और मैं इस धर्म और राजनीतिमें अन्तर नहीं करता।" (पृष्ठ ५५)। मानव-जातिके कल्याणके लिए अपने हृदयकी आकुलता व्यक्त करते हुए एक और स्थलपर उन्होंने लिखा है: "आप मुझे महात्मा कहते हैं। इसका कारण न तो मेरा सत्य है और न मेरी अहिंसा-वृत्ति बल्कि इसका कारण दीन दुखियोंके प्रति मेरा अगाध प्रेम है। चाहे कुछ भी हो जाये, पर मैं इन फटेहाल नर-कंकालोंको नहीं भूल सकता, नहीं छोड़ सकता।" (पृष्ठ ६३)। लेकिन गांधीजीकी मानवीयताका उत्स उनकी भगवद्भक्ति ही थी। जैसा कि उन्होंने "बोलशेविज्म या आत्मसंयम" शीर्षक लेखमें स्वयं कहा है, उनका आन्दोलन नास्तिक नहीं था। "वह ईश्वरको नहीं नकारता। वह तो उसीके नामपर शुरू किया गया है निरन्तर उसकी प्रार्थना करते हए चलाया जा रहा है।" (पृष्ठ १९)। उनके सार्वजनिक जीवनमें उनके सामने जब भी कोई विचिकित्साका प्रसंग आता था, वे सही उत्तर पानेके लिए अपनी अन्तरात्माको टटोलते थे, ईश्वरसे प्रार्थना करते थे और जब कुछ कालके लिए उन्हें अन्तरात्मा अथवा ईश्वरसे कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता था, वे बहुत परेशान हो उठते थे। 'फाउस्ट 'की मार्गरेटकी दशाका स्मरण करते हुए उन्होंने एक ऐसे ही प्रसंगपर लिखा, "जान पड़ता है, मैं भी अपने प्रियतमसे हाथ