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वास्तविकताएँ

इस्तेमाल करने लगें, तो हम उनके प्रतिनिधि नहीं रह जायेंगे। पहले हमें उनके अन्दर काम करके, उनके साथ अपना जीता-जागता रिश्ता जोड़ना चाहिए। हमें उनके दुःखको अपना दुःख समझना चाहिए, उनकी कठिनाइयोंको अनुभव करना चाहिए और उनके अभावों और जरूरतोंको जानना चाहिए। अछूत और बहिष्कृत लोगों में भी हमें उन जैसा ही बनकर जाना चाहिए और देखना चाहिए कि उच्च श्रेणीके लोगोंके पाखाने साफ करना और अपने सामने उनकी जूठी पत्तलोंका बचा हुआ खाना फेंका जाना कैसा लगता है। हमें बम्बईके मजदूरोंकी सन्दूकनुमा खोलियोंमें, जिन्हें लोगोंने झूठमूठ मकानका नाम दे दिया है, रहकर देखना चाहिए कि हमारे दिलको कैसा लगता है। हमें देहातियोंमें देहाती बन जाना चाहिए और देखना चाहिए कि वे किस तरह जेठ-बैसाखकी कड़ी धूपमें कमर झुकाकर हल चलाते हैं और हमें जानना चाहिए कि उन पोखरोंसे पानी पीना हमें कैसा मालूम होगा जिनमें देहाती लोग नहाते हैं, कपड़े और बरतन धोते हैं और जिनमें उनके मवेशी पानी पीते हैं और लोटते हैं। हम उसी अवस्था में अपनेको उनका सच्चा प्रतिनिधि कह सकते हैं, उसके पहले नहीं; और तभी वे यकीनन हमारी हरएक पुकारपर प्राणपणसे दौड़ पड़ेंगे, उसके पहले नहीं।

इसपर कुछ लोग कहेंगे, "हमसे यह सब नहीं हो सकता और अगर हमें यही करना हुआ तो फिर आगे एक हजार साल या उससे भी अधिक समयके लिए स्वराज्यको नमस्कार।" इस ऐतराज के साथ मेरी हमदर्दी होगी। पर मैं यह बात दावेके साथ कहूँगा कि हममें से कमसे कम कुछ लोगोंको जरूर इन यन्त्रणाओंसे गुजरना पड़ेगा और उसी तपस्या से एक पूर्ण, बलशाली और स्वाधीन राष्ट्रका जन्म होगा। इसलिए मैं सब लोगोंको यह सुझाव देता हूँ कि वे अपना मानसिक सहयोग दें और मानसिक रूपसे वे जनताके साथ अपना तादात्म्य स्थापित करें तथा उसके दृश्य और ठोस प्रतीकके तौरपर वे उसके नामपर उसके लिए रोज कमसे कम तीस मिनट लगनपूर्वक चरखा कातें। यह कार्य मानो भारतके हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई आदि जातियोंके प्रबुद्ध लोगोंकी तरफसे जनताकी अर्थात् भारतमाताकी मुक्ति के लिए ईश्वरसे की जानेवाली बलवती प्रार्थना होगी।

हिन्दुओं और मुसलमानोंका तनाव दिनपर-दिन बढ़ता जा रहा है। सिवा इसके कि देश के तमाम दल कांग्रेसके अन्दर एक होकर इस अत्यन्त जटिल समस्याको हल करनेका सबसे अच्छा उपाय सोचें, इसे दूर करनेका दूसरा कोई रास्ता मुझे नहीं दिखाई देता। इस समस्याके कारण तो पारस्परिक विश्वास और पारस्परिक सहायताकी बुनियादपर आधारित राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्राप्त करनेकी हमारी बड़ी-बड़ी उमंगें टूक-टूक हो रही हैं। अतएव यदि और किसी कारणसे नहीं तो महज इस एकताके लिए ही हमें अपनी अन्दरूनी राजनीतिक लड़ाई बन्द कर देनी चाहिए।

इसकी सिद्धिके लिए मेरा प्रस्ताव यह है:

(१) १९२५ के अधिवेशन तकके लिए कांग्रेस विदेशी कपड़ोंके बहिष्कारको छोड़कर अपने तमाम बाकी बहिष्कारोंको स्थगित कर दे।

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