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९७. हिन्दू-मुस्लिम एकता

मुझे सूरतकी सभा में हिन्दू-मुस्लिम एकता के सम्बन्धमें कुछ बोलने का मौका मिला था।[१]कारण यह था कि कितने ही सज्जनोंने संगठन के विषयमें मेरे विचार जानने चाहे थे। उसके बाद मुझे एक मुसलमान सज्जनका पत्र मिला। उसमें उन्होंने कुछ सुझाव दिये थे। अब मैं देखता हूँ कि गुजरातमें भी झगड़ेका भय दिखाई देता है। वीसनगर का मामला अभी तय हुआ नहीं माना जा सकता। मांडलमें कुछ उपद्रव हुआ है। अहमदाबादमें भी कुछ गड़बड़ी हुई है। उमरेठमें दंगेका डर है। ऐसी ही हालत अन्य प्रान्तोंमें, जैसे भागलपुर (बिहार) में भी हो रही है।

यह सवाल दिन-ब-दिन गम्भीर होता जा रहा है। एक बात तो शुरुआत में ही स्पष्ट कर दी जानी चाहिए। यह बात बराबर कही जाती है कि इन झगड़ोंमें सरकारी लोगोंका हाथ है। यदि यह आरोप सच हो तो मुझे दुःख होगा, ताज्जुब तो कुछ भी न होगा, क्योंकि सरकारकी तो नीति ही हममें फूट डालनेकी है। इसलिए यदि सरकार यह चाहती हो कि हम लड़ें-झगड़ें तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। दुःख तो इसपर होगा कि अभीतक दोनों कौमें अपना-अपना हित नहीं समझ पाई हैं। जिन्हें लड़ाई-झगड़ा करनेकी आदत पड़ गई है, उन्हीं लोगोंमें तीसरा पक्ष झगड़ा करा सकता है। ब्राह्मणों और बनियोंमें तो सरकारकी ओरसे झगड़ा कराये जानेकी बात अबतक नहीं सुनी गई और सुन्नी मुसलमानोंमें भी लड़ाई कराये जानेकी बात भी कभी नहीं सुनी। परन्तु वह हिन्दू-मुसलमानोंमें झगड़ा फसाद कराती है, ऐसा सन्देह और भय सदा रहा है; क्योंकि दोनों जातियाँ बहुत बार लड़ चुकी हैं। जब हम लड़नेका स्वभाव छोड़ देंगे तभी हम आसानीसे स्वराज्य ले सकते हैं, नहीं तो वह असम्भव है।

जबतक हिन्दू डरते रहेंगे तबतक झगड़े भी होते ही रहेंगे। जहाँ डरपोक होता है वहाँ डरानेवाला हमेशा मिल ही जाता है। हिन्दुओंको समझ लेना चाहिए कि जबतक वे डरते रहेंगे तबतक उनकी रक्षा कोई न करेगा। मनुष्यका डर रखना यह सूचित करता है कि हमारा ईश्वरपर अविश्वास है। जिसे यह विश्वास न हो कि ईश्वर हमारे चारों ओर है, सर्वव्यापी है या जिसका यह विश्वास शिथिल हो, वह अपने बाहुबलपर विश्वास रखता है। हिन्दुओंको दोनोंमें से एक बात प्राप्त करनी होगी। यदि ऐसा न करेंगे तो सम्भव है, हिन्दू जाति नष्ट हो जाये।

पहला मार्ग--केवल ईश्वरपर विश्वास रखकर मनुष्यका डर छोड़ देना--अहिंसाका मार्ग है और उत्तम है। दूसरा मार्ग बाहुबलका है, यह हिंसाका मार्ग है। संसारमें दोनों मार्ग प्रचलित हैं और हमें दोनों में से किसी भी एकको ग्रहण करनेका अधिकार है। परन्तु एक आदमी एक ही समय दोनोंका उपयोग नहीं कर सकता।

  1. देखिए "भाषण: सूरतकी सार्वजनिक सभामें", ५-९-१९२४।