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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सके। इसलिए अब आपस में ही एक-दूसरेसे असहयोग करने लग गये। हाथसे निकला शस्त्र कदापि वापस नहीं आता, अतः उसने हमारा ही संहार करना आरम्भ कर दिया। हिन्दुओं और मुसलमानों तथा स्वराज्यवादियों और अपरिवर्तनवादियोंने परस्पर असहयोग आरम्भ कर दिया। दोनोंके असहयोगमें शान्तिके स्थानपर अशान्ति और प्रेमके स्थानपर वैर है। दोनोंके दिलोंमें एक-दूसरेके प्रति अविश्वास है, द्वेष है। ऐसी स्थितिमें शुद्ध प्रेमको सबल हथियार माननेवाले लोगोंको क्या करना चाहिए। ऐसी स्थिति में मेरे जैसे अहिंसावादी होने का दावा करनेवाले लोगोंका धर्म क्या है? मैं स्वराज्यवादियोंसे लड़नेमें सबसे आगे हूँ। उनकी विधान-परिषदोंमें जानेकी नीति मुझे तनिक भी पसन्द नहीं आई। इसलिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में मैंने उनका डटकर विरोध किया, लेकिन अन्तमें हार मान ली। मगर मैंने फिर लड़नेका इरादा जाहिर किया। मैंने यह मान लिया कि जब दोनों पक्ष मेरे शुभ उद्देश्यको जान जायेंगे तब वे फिर अपने-अपने कार्यमें निरत हो एक-दूसरे की मदद करने लगेंगे। लेकिन मेरा यह अनुमान गलत सिद्ध हुआ है। दोनोंके मन अशान्त हैं। बेलगाँव में बहुमतके बलपर कांग्रेसपर कब्जा करनेकी तैयारियाँ की जा रही हैं। यह प्रेमकी निशानी नहीं है। जहाँ सैद्धान्तिक मतभेद हो, वहाँ बहुमतकी पद्धति काम नहीं देती। जहाँ दोनों पक्षोंमें अविश्वास आ जाता है, वहाँ वह दोनोंके बीच कटुताको बढ़ाता है। जहाँ मतदाता केवल अन्ध-श्रद्धासे ही मत देते हों और अपनी बुद्धिसे काम न लेते हों, वहाँ उन्हें सच्ची शिक्षा नहीं मिलती; अपितु उनका पतन होता है। जहाँ मतदाता भोले-भाले लोग होते हैं और सूक्ष्म बातोंको नहीं समझते वहाँ बहुमतकी पद्धति उनके नाशका कारण भी बन जाती है।

यह जानते हुए मैं कांग्रेस में बहुमतके सिद्धान्तसे निर्णय कैसे करवा सकता हूँ? जो प्रतिनिधि आयेंगे वे गुण और दोषकी जाँच न करके, भाषणकर्त्ताओंका मुँह देखकर ही मत देंगे।

ऐसी स्थिति में मुझे अपने अहिंसा-धर्मपर दृढ़ रहकर लोगों के सामने प्रेमका पदार्थ-पाठ प्रस्तुत करना चाहिए। मैं कांग्रेसका कारोबार अपने हाथोंमें रखनेके मोहमें नहीं पड़ सकता। यदि मैं विनम्रतापूर्वक दलीलें देकर स्वराज्यवादियोंको नहीं समझा सकता तो मुझे सिर झुकाकर कांग्रेससे अलग हो जाना चाहिए। अहिंसावादी की पराजयमें भी उसकी जय ही होती है। अहिंसावादी सत्ताके लिए कदापि नहीं जूझेगा। अहिंसावादी अपने सिद्धान्तका प्रचार भी बहुमतके बलपर नहीं बल्कि आत्मबलसे करता है। उसे पूरा विश्वास होता है कि यदि उसकी अहिंसा सच्ची होगी तो वह अकेला रहने के बावजूद अन्तमें विजय प्राप्त करेगा अर्थात् यदि वह मृत्युपर्यन्त अपने सिद्धान्तका अनुसरण करता रहेगा तो अन्तमें उसके सिद्धान्तकी जीत अवश्य होगी। देहधारियोंमें सिद्धान्तका प्रचार करनेके लिए यही एक रास्ता है कि कोई उस सिद्धान्तको अपने जीवन में मूर्तिमान करे। कहने का तात्पर्य यह है कि सिद्धान्तके लिए किसी-न-किसीको तो अपने जीवनकी भेंट देनेकी तैयारी रखनी ही चाहिए। अतः मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं सिद्धान्तकी खातिर तो स्वराज्यवादियोंके साथ बहुमतकी