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१०५. पत्र: चक्रवर्ती राजगोपालाचारीको

मार्फत: मौलाना मुहम्मद अली
'कॉमरेड' कार्यालय
दिल्ली
१५ सितम्बर, १९२४

प्रिय राजगोपालाचारी,

आपका पत्र पढ़ा, तभीसे मैं लगातार आपके बारेमें सोचता रहा हूँ। यह कैसी बात है कि मेरे उठाये गये कदमकी आवश्यकताको आप उतनी स्पष्टतासे नहीं देखते जितनी कि मैं देखता हूँ? मैं आपकी यह बात मानता हूँ कि अगर हम अपना कार्यक्रम चालू नहीं करा सकते तो कांग्रेसको छोड़ देना ही ज्यादा अच्छा रहेगा। कठिनाई यह है कि इसे छोड़ा कैसे जाये। मुझे तो बार-बार यही लगता है कि हमें स्वराज्यवादियोंको अटपटी स्थितिमें नहीं डालना चाहिए। वे एक ऐसी जरूरत पूरी कर रहे हैं जिसे महसूस किया जा रहा है। वे छोटी-मोटी राहतें चाहनेवाले एक बहुत बड़े जन-समुदायका प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं। क्या हम इसमें अड़चन पैदा करेंगे? हमारी प्रवृत्ति मुख्यतः आध्यात्मिक है। इसकी शक्ति अप्रत्यक्ष रूपसे बढ़ती है और महज बहस-मुबाहिसों या मतदान करानेसे नहीं बढ़ती। अभी भी मैं अपनी बातको पूरी स्पष्टतासे व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ। यह तो मैंने जो रास्ता अपनाया है और अपने सब लोगोंको जिसे अपनाने की सलाह दी है, उसके पक्षमें दी जा सकनेवाली कई दलीलोंमें से सिर्फ एक ही दलील पेश की है। जैसे भी हो, मुझे तो यही लगता है कि मैंने बिलकुल सही कदम उठाया है, यद्यपि मैं आपको उसके सही होनेका इस प्रकार यकीन नहीं दिला सकता कि आप सन्तुष्ट हो जायें। मैं जानता हूँ कि आपके और दूसरे लोगोंके लिए अपने-आपको इन आकस्मिक परिवर्तनोंके अनुकूल ढाल लेना कितना मुश्किल होगा। लेकिन मैं करूँ भी तो क्या? मैं जानता हूँ कि मैं अपने साथियोंकी निष्ठा और आस्थापर अनुचित दबाव डाल रहा हूँ। परन्तु अपनी अन्तरात्माकी बिलकुल स्पष्ट आवाजको दबा देनेकी अपेक्षा क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं है कि मैं यह कदम उठाऊँ? अगर मैं एक बार भी अपनी इस सचेतक (अन्तरात्माकी) आवाजको दबा दूँ तो फिर मैं किस कामका रह जाऊँगा। लेकिन यह सब तो यों ही प्रसंगवश लिख गया हूँ।[१]

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई

  1. साधन-सूत्र में इसके आगे कोष्ठकमें यह वाक्य लिखा हुआ है, "पत्रके शेष भागमें दक्षिण भारतमें चलनेवाले बाढ़-सहायता कार्यकी चर्चा है।"