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जेलके अनुभव--११ [चालू]

चूँकि वे, जो जैसा है, उसके उसी रूपसे सन्तुष्ट रहती हैं और उसे कायम रखना चाहती हैं, इसलिए उनमें आविष्कारकी प्रवृत्ति नहीं होती। इसके विपरीत, पुरुष वर्तमानसे असन्तुष्ट रहते हैं और उनका झुकाव अकसर तोड़-फोड़की ओर रहता है, इसलिए उनमें आविष्कारकी प्रवृत्ति होती है। यह बात चाहे सर्वत्र लागू होती हो या नहीं, लेकिन इस तथ्यसे तो कोई इनकार नहीं कर सकता कि सभी बड़े-बड़े आविष्कार पुरुषोंने ही किये हैं। हमारे कताई-कार्यका भी संगठन पुरुष कतैयोंने ही किया है। उन्होंने ही इस यन्त्रमें तमाम जरूरी सुधार किये हैं। तो हम चाहे जिस दृष्टिकोण से देखें, जबतक कताईका इतना प्रचार नहीं हो जाता कि वह हमारे गाँव-गाँवमें पुनः प्रतिष्ठित हो जाये और हम विदेशी कपड़ेका पूरा बहिष्कार कर सकें, तबतक भारतमें हाथ-कताई जितनी जरूरी स्त्रियोंके लिए है उतनी ही पुरुषोंके लिए भी है।

(उपर्युक्त दोनों टिप्पणियाँ गांधीजीने उपवाससे पहले ही लिखी थीं।)

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २५-९-१९२४

१११. जेलके अनुभव---११ [चालू]

मेरा पठन [-३]

[१७ सितम्बर, १९२४ से पूर्व][१]

एक प्रिय मित्रकी भेजी हुई एक छोटो-सी परन्तु मूल्यवान पुस्तकका भी उल्लेख करना मुझे भूलना नहीं चाहिए। यह पुस्तक है, जैकब बोहमन-कृत 'सुपरसेन्सुअल लाइफ' (अतीन्द्रिय जीवन) उसके कुछ आकर्षक उद्धरण पाठकोंके सम्मुख रख रहा हूँ। ये मैंने पुस्तकमें से उतार लिये थे।

तेरी अपनी श्रवणेन्द्रिय और तेरी इच्छा ही तुझे प्रभुके श्रवण और दर्शनमें बाधक होती है।

यदि तू प्राणियोंपर अपने आन्तरिक स्वभावकी गहराईसे नहीं, केवल बाहर-से ही राज्य करता है, तो तेरी इच्छा, तेरा शासन पाशविक और जड़ है।

तू वस्तु-मात्र जैसा है और ऐसी एक भी वस्तु नहीं जो तेरे जैसी न हो।

यदि तुझे वस्तु-मात्र जैसा बनना हो तो तुझे तमाम वस्तुओंका त्याग करना चाहिए।

तेरे हाथ और तेरी बुद्धि भले ही काममें लगी रहे, परन्तु तेरा हृदय तो ईश्वरमें ही तल्लीन रहना चाहिए।

  1. शीर्षकके अन्तमें दी गई सम्पादकीय टिप्पणीसे।