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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सेवक और वेतनभोगी कार्यकर्त्ता भी अधिक हैं। मैं यह भी नहीं चाहता कि मेरे कहनेका मतलब यह निकाला जाये कि असहयोग सर्वथा असफल सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत, उसने तो राष्ट्रको इतनी शक्ति और ओज प्रदान किया है, जितना और किसी चीजने नहीं दिया; लेकिन जितनी आशा इससे रखी गई थी, उतनी वह पूरी नहीं कर सका। लोगोंने इसके प्रति काफी उत्साह दिखाया, लेकिन उतना नहीं जितना कि उस उद्देश्यके लिए जरूरी था, जिस उद्देश्यसे असहयोग शुरू किया गया था। लेकिन इन बातोंसे कार्यकर्त्ताओंको क्या तसल्ली मिल सकती है? उन्हें तो उसका फल चखनेके लिए अभी बहुत काम करना है।

स्थगित किया जा रहा है या रद?

एक भाई लिखते हैं: "बहिष्कारोंको स्थगित करनेका जो प्रस्ताव आपने रखा है, क्या वह वास्तवमें उन्हें रद करनेका ही प्रस्ताव नहीं है?" मेरा तो ऐसा मंशा नहीं। फिलहाल मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं कि बहिष्कारोंको रद कराऊँ। अगर ऐसा इरादा होता, तो मैं उसे जाहिर करनेमें न हिचकिचाता। हाँ, यह आशा अवश्य करता हूँ कि उन्हें फिरसे चालू करने की जरूरत ही शायद न रहे। लेकिन राष्ट्रीय विकासके लिए बहिष्कारोंको स्थगित करनेकी जिस तरह आज मुझे आवश्यकता दिखाई दे रही है, उसी तरह अगर मुझे उसके लिए उनको फिरसे चालू करने की जरूरत मालूम हुई तो मैं उन्हें चालू करते हुए जरा भी न हिचकूँगा। वे आगे पूछते हैं: 'क्या इस तरह आप घातक आन्तरिक कलहको एक सालके लिए टाल ही नहीं रहे हैं? मैं फिर कहूँगा---नहीं। हमें तो सालके अन्तमें ही पता चलेगा कि हम हैं कहाँ। अगर सालके अन्तमें भी ऐसे ही तीव्र मतभेदोंकी सम्भावना रही तो निश्चय ही बहिष्कार फिर चालू नहीं किये जा सकेंगे। वे अब राष्ट्रके कार्यक्रममें उसी अवस्थामें दाखिल हो सकते हैं जब राजनीतिक क्षेत्रके सक्रिय कार्यकर्त्ताओंको उनकी जरूरत समझाई जा सके। जबतक ऐसा नहीं होता तबतक तो उन्हें कुछ थोड़े-से लोगोंकी नीति या सिद्धान्तके रूपमें ही बने रहना पड़ेगा। इस हकीकतकी तरफ से आँखें न मूँद लेनी चाहिए कि सरकार जो कुछ देने को राजी होगी, वह राष्ट्रके उस छोटे-से तबकेकी माँगोंका खयाल करके ही उतना कुछ देनेको राजी होगी, जिसकी आवाजमें जोर है और जो सक्रिय है। अगर यह तबका भी परस्पर एक-दूसरेसे लड़ते रहनेवाले गुटोंमें बँट जायेगा तो सरकार कुछ भी नहीं देगी। सालके अन्तमें मैं दोमें से एक बात की उम्मीद रखता हूँ---या तो अपरिवर्तनवादी लोग विशुद्ध राजनीतिक अर्थात् बाहरी हलचलोंमें विश्वास करने लगेंगे या हमारे शुद्ध राजनीतिज्ञ लोग, महज बाहरी हलचलोंकी निरर्थकता महसूस करके अपने-आपको भीतरी मजबूतीके काम में लगा देंगे, जिसके लिए बहिष्कारोंको जरूरी तौरपर मंजूर करना होगा। हाँ, यह भी हो सकता है कि भीतरी मजबूती और उन्नतिका काम तथा राजनीतिक हलचल, दोनोंको ही आमतौरपर और भी अधिक लोग स्वीकार करनेमें लगें और इस तरह हम दोनों पक्षोंकी परस्पर सहायताके बलपर सरकारको सभी दलोंकी न्यूनतम संयुक्त माँगें स्वीकार करनेपर मजबूर कर दें।