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टिप्पणियाँ

मेरे प्रस्तावके मूलमें मुख्य आशय यह है कि राष्ट्रको एक ही मंचपर सुसंगठित किया जाये और फिर यह आशा रखी जाये कि हरएक पक्ष ईमानदारीके साथ अपने कार्यसे दूसरे पक्षोंको प्रभावित करता चलेगा और इस तरह सारे पक्ष स्वेच्छापूर्वक एक सामान्य कार्यक्रमको स्वीकार कर लेंगे। अगर ये महान् उद्देश्य कामयाब न हों तो भी हम इतनी आशा तो कर ही सकते हैं कि सभी दल एक-दूसरेकी नीयतपर शक किये बिना यथासम्भव अधिकसे-अधिक शोभनीय ढंगसे एक दूसरेसे अलग होंगे। किसी भी आन्दोलनमें किसी योजनाको स्थगित कर देना कोई असाधारण बात नहीं है। उससे तो अकसर उस स्थगित की गई योजनाको, यदि उसमें आन्तरिक शक्ति हो तो, और भी बल मिलता है। इसलिए जो लोग इन बहिष्कारोंके वास्तविक गुणके कायल हैं, उन्हें थोड़ेसे समय के लिए इन्हें स्थगित करनेपर इनके सदाके लिए लुप्त हो जानेका डर मनमें नहीं पनपने देना चाहिए। बहिष्कारमें सच्ची आस्था रखनेवाले लोगोंको ऐसे किसी संकटको न आनेकी पक्कीसे-पक्की गारंटी होनी चाहिए।

हृदयकी एकता

एक भाई लिखते हैं:

बम्बई नगर-निगमके अभिनन्दन के उत्तरमें[१] आपने एक मुहावरेका प्रयोग किया। वह था---हृदयकी एकता। मैंने इसपर खूब विचार और मनन किया और इस निष्कर्षपर पहुँचा कि ब्रह्माण्डके अभ्यन्तरमें हृदयकी एकताका रहस्य छिपा हुआ है। आवश्यकता सिर्फ इस बातकी है कि कोई इन अथाह गहराइयों-में उतरकर इस दिव्य पारसमणिको प्राप्त करे और उसके स्पर्शसे मानवीय सम्बन्धोंके विश्रृंखल और विवर्ण अंशोंको पुनः सौन्दर्य और आनन्दसे भर दे। सत्य और ऋतके अन्तरमें भी हृदयकी एकता ही विद्यमान है। जिस सूत्रसे नक्षत्र एक दूसरेसे बँधे और अन्तरिक्षमें टिके हुए हैं, वह भी हृदयकी एकता ही है। इसीने भौतिक तत्त्वोंको एक-दूसरेसे संयुक्त कर रखा है। रसायन-शास्त्रियोंने इस बातका तो पता लगा लिया था कि जल हाइड्रोजन और नाइट्रोजनका मिश्रण है, लेकिन इन दोनों तत्त्वोंके संयोगसे वे जल नहीं बना पाये। इसके लिए उन तत्त्वोंमें से एक विद्युत्-धारा प्रवाहित करनी पड़ी। प्रकृतिमें यही विद्युत्-धारा हृदयकी एकता है। हृदयकी एकता ही वस्तुओंका रूपान्तरण करती है--बर्फको पिघला कर पानी और पानीको जमा कर बर्फ बना देती है।... आत्म-तत्त्वका पदार्थ के रूपमें प्रकट होना और पदार्थका आत्म-तत्त्वमें विलीन हो जाना, यह सब इसी हृदयकी एकताका व्यापार है।

शिवके साथ हृदयको एकता प्राप्त करनेके लिए पार्वतीकी तपस्या हिन्दू कल्पनाका एक अद्भुत उदाहरण है। पार्वती मानव रूपमें ईश्वरीय शक्ति या ब्रह्माण्डका क्रियाशील सिद्धान्त है। मुझे लगता है कि इसकी कल्पना हमारे

  1. देखिए "भाषण: बम्बई-निगमके अभिनन्दनके उत्तरमें", २९-८-१९२४।