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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इच्छा न होनेपर भी दब जाता है। मुझे तो यह खयाल होता है कि हिन्दू लोग अंग्रेजोंकी गुलामीसे मुक्त होनेकी जो कोशिश कर रहे हैं सो उसका नतीजा यह होगा कि वे मुसलमानोंकी गुलामीमें पड़ जायेंगे। आपका दिलको हिला देनेवाला लेख[१] 'गुलबर्गाका पागलपन' इस मामलेमें खुद आपकी भावनाओंकी गहराईको जाहिर करता है।

आपने कई मरतबा यह जाहिर किया है कि आप कायरतासे हिंसाको अधिक पसन्द करते हैं। आपने कुछ दिनों पहले 'यंग इंडिया' में यह भी लिखा[२] था कि औसत मुसलमान गुंडा होता है और हिन्दू बुजदिल। अफसोस कि वह बिलकुल सच है। अन्यथा यह कैसे हो सकता था कि नागपुरके अल्पसंख्यक मुसलमान हिन्दुओंकी एक बहुत बड़ी संख्या के खिलाफ इस तरह बारबार उठ खड़े होते हैं। सच बात तो यह है कि गरीब हिन्दूकी न तो कोई इज्जत करता है और न कोई उससे डरता है। डार्विनकी बात सही थी या नहीं, इसका निर्णय करना मेरा काम नहीं है। किन्तु एक बात तो बिलकुल स्पष्ट है कि कमजोरोंके लिए इस संसारमें स्थान नहीं है। उन्हें या तो शक्तिशाली बनना चाहिए नहीं तो उनका अस्तित्व ही मिट जायेगा। अगर हिन्दू लोग जीना चाहते हैं तो उन्हें अपना संगठन करना चाहिए और शक्तिशाली बनना चाहिए। उन्हें आन्दोलन करना चाहिए और अपनी स्त्रियों और अपने देवताओंके सम्मानकी रक्षाके लिए जान देनेकी देवी कला सीखनी चाहिए।

लेकिन वे जो हद दरजेके कायर हैं, उनके लिए अहिंसाका कुछ भी अर्थ नहीं है। यह तो उनकी निरी कायरताको छिपानेके लिए एक आवरणका काम देती है। उन्हें अहिंसा सिखाना तो ऐसा मालूम होता है जैसे अकालमें भूखसे पीड़ित लोगोंको भूख मिटानेके लिए आवश्यक खाना दिये बिना ही खानेमें संयम रखनेकी शिक्षा देना या बीमार और कमजोर आदमीको वह खाना खिलाना जिसे हजम करना एक मजबूत आदमीके लिए भी मुश्किल हो। यह उन्हें कुछ भी फायदा पहुँचानेके बजाय सिर्फ नुकसान ही पहुँचायेगा।

यदि आप इस विचारधाराको स्वीकार करें तो क्या आपको यह स्वीकार न करना पड़ेगा कि सच्ची और स्थायी हिन्दू-मुसलमान एकताके लिए हिन्दुओंमें मर्दानगी पैदा होना लाजिमी है? क्या उन्हें अपनी स्त्रियों और मन्दिरोंके सम्मानकी रक्षा करना नहीं सीखना चाहिए? जो कमजोर हैं वही समाजके सबसे बड़े दुश्मन हैं। वे खुद अपनेको भ्रष्ट करते हैं और शक्तिशालीको भी, जिसे वे अपने ऊपर अत्याचार करनेका मौका देते हैं। कमजोरी उन दोनोंके लिए शाप बन जाती है, जो स्वयं कमजोर हों तथा जो कमजोरोंपर जुल्म

  1. २८-८-१९२४ का।
  2. देखिए खण्ड २४, पृष्ठ १३९-५९।