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सबसे बड़ा प्रश्न

करते हों। हाँ, हिन्दुओंको उचित है कि वे 'दाँतके बदले दाँत' और 'आँखके बदले आँख' वाले अर्थमें बदला न लें; वे मुसलमान स्त्रियोंका शील-भंग न करें और मसजिदोंको अपवित्र या नष्ट न करें। पर चूँकि अहिंसा उनके बसके बाहरकी चीज है, इसलिए क्या आप उन्हें यह सलाह न देंगे कि वे इन बुराई करनेवालोंको अच्छा सबक सिखाना तो सीख लें? वे अहिंसाकी श्रेष्ठता समझें, इससे पहले क्या यह जरूरी नहीं है कि वे हिंसात्मक उपायोंसे अपनी रक्षा करनेकी क्षमता उत्पन्न करें। हिन्दुओं की भलाई, सच्ची हिन्दू-मुसलमान मंत्री और खुद स्वराज्यका भी क्या यही रास्ता नहीं है?

ये विचार मुझे बहुत दिनोंसे उद्विग्न बनाये हुए हैं। मैंने उपर्युक्त सवालों- का उत्तर पानेके लिए हर पहलूसे सोचा, लेकिन सन्तोषप्रद उत्तर न मिला। इसलिए मैं मार्ग-दर्शनके लिए आपको कष्ट दे रहा हूँ। में 'यंग इंडिया' के स्तम्भोंमें आपका उत्तर देखनेकी उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा करूँगा। आप अपना सुभीता देखकर, जितनी जल्दी बन पड़े इसका उत्तर दीजिएगा।

मैं अपना पत्र तो नहीं, लेकिन नाम गुप्त रखना चाहता हूँ।

इस पत्रके हर वाक्यसे लेखककी ईमानदारी झलकती है। उनकी दलीलें अपनी जगह ठीक हैं। पर ज्यों-ही लेखकके विचारोंको और उनसे निकलनेवाले निष्कर्षोको कार्यरूपमें परिणित करनेका विचार उठता है, त्यों-ही मेरे सामने कठिनाई खड़ी हो जाती है। गुजरातमें जो समस्या खड़ी हो गई है उसका सामना करनेके लिए और मेरे हिन्दू और मुसलमान मित्रों द्वारा जो प्रश्न पूछे गये हैं, उनके जवाबमें मैंने पिछले सप्ताह 'नवजीवन' में एक लेखमें अपनी योजनाकी रूपरेखा दी थी। पाठक उस लेखका महादेव देसाई द्वारा किया गया अनुवाद[१]

मेरी तो इस समय बहुत ही दयनीय हालत हो रही है। यह हमारे राष्ट्रकी परीक्षाका समय है और यह कहना गलत न होगा कि हजारों लोग इस मौकेपर रहनुमाईके लिए मेरी ओर आँखें लगाये हैं। खिलाफत आन्दोलनमें मैंने प्रमुख भाग लिया है। मैंने बदलेमें कुछ पानेकी आशाके बिना सब-कुछ दे देनेके सिद्धान्तका बेहिचक और बेखौफ होकर प्रतिपादन किया है। मेरी इस विचार-प्रणालीमें कुछ भी दोष नहीं है। पर पत्र लेखकका सवाल यह है---'क्या मेरा विचार वर्तमान स्थितिके लिए ठीक है? क्या हिन्दुओंके पास देने के लिए कुछ है? कोई बिना लिए उसी अवस्थामें दे सकता है जब खुद उसके पास काफी हो।"

आइए, अब इसपर जरा विचार करें।

पत्र-लेखक और मैं दोनों इस बातपर तो सहमत हैं कि औसत हिन्दू डरपोक हैं। तब सवाल यह है कि वे निर्भय और वीर कैसे बनें? उनका भय अपने बदनके रंग-पुट्ठोंको मजबूत बनानेसे दूर होगा या उनकी आत्मामें वीरताका संचार होने से? पत्र-लेखक कहते हैं, "कमजोरोंके लिए इस संसार में स्थान नहीं।" कमजोरसे

  1. देखिए "हिन्दू-मुस्लिम एकता", १४-९-१९२४। अन्यत्र देखेंगे।