पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/२२४

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१३०. ईश्वर एक है' १९ सितम्बर, १९२४ पिछले गुरुवार की रातको पहलेसे वक्त मुकर्रर करके कुछ मुसलमान मित्र मुझसे मिलने आये थे । उनमें मुझे ईमानदारी और सचाई दिखाई देती थी । शुद्धि और संगठनके खिलाफ उन्हें बहुत कुछ कहना था । मैं इन आन्दोलनोंके बारेमें अपने विचार पहले ही प्रकट कर चुका हूँ । जहाँतक हो सके, उपवासके इन विशेष दिनों- में, मैं विवादास्पद विषयोंपर कुछ भी नहीं कहना चाहता । यहाँ तो मैं उनके बताये एकता के उपायकी ओर पाठकोंका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। उन्होंने कहा, 'हम 'वेदों' की अपौरुषेयताको मानते हैं। हम श्रीकृष्णजी महाराज और रामचन्द्रजी महाराज (विशेषण उन्हीं के हैं) को भी मानते हैं । फिर हिन्दू 'कुरान' को देवी मानकर हमारे साथ यह क्यों नहीं कहते कि खुदा केवल एक है और मुहम्मद उसका पैगम्बर है ? हमारा मजहब वर्जनशील नहीं है, वह तो तत्त्वतः ग्रहणशील और व्यापक है । " " मैंने उनसे कहा कि उनका उपाय उतना आसान नहीं जितना कि वे बताते हैं। उनका यह सूत्र चाहे कुछ सुशिक्षित लोगोंके लिए ठीक हो, पर सामान्य लोगोंके लिए वह काम न देगा। क्योंकि हिन्दुओंकी दृष्टिमें गो-रक्षा और रास्तेमें मसजिद हो तो भी वाद्य और संगीतके साथ हरि-कीर्तन करते हुए जाना हिन्दू धर्मका सार है और मुसलमानोंके खयालमें गो-वध और बाजे बजानेपर रोक इस्लामका सार-सर्वस्व है । इसलिए यह जरूरी है कि हिन्दू लोग मुसलमानोंको गो-कुशी छोड़ देनेपर मजबूर करना छोड़ दें और मुसलमान लोग हिन्दुओंको बाजे बन्द करनेपर लाचार करना छोड़ दें । गो-कुशी और बाजे बजाने के नियमनका काम दोनों जातियोंके सद्भावपर छोड़ दिया जाये । ज्यों-ज्यों दोनोंमें सहनशीलता के भाव बढ़ते जायेंगे, त्यों-त्यों ये दोनों रिवाज अपने-आप सही रूप धारण कर लेंगे। पर मैं इस नाजुक सवालकी चर्चा यहाँ अधिक विस्तारसे नहीं करना चाहता । मैं तो यहाँ उन मुसलमान मित्रोंके बताये आकर्षक सूत्रपर विचार करना चाहता हूँ और कहना चाहता हूँ कि उसमें से कमसे कम में क्या मान सकता हूँ; और चूंकि मेरा मन पूरी तरहसे वैसा ही है जैसा एक हिन्दूका होता है, मैं जानता हूँ कि इस- पर मैं जो कुछ कहूँगा वह हिन्दुओंके एक विशाल समुदायको भी पसन्द होगा । १. मूल अंग्रेजी लेखके भारम्भ में महाकवि गेटेके फॉस्टसे एक उद्धरण दिया गया था। उसकी अन्तिम पंक्तियाँ, जिनमें उसका सारांश भा जाता है, इस प्रकार हैं : मैं उसे कोई नाम नहीं दे सकता ? अनुभूति ही सब कुछ है ! नाम तो केवल शब्द है, वह तो धुआँ है - ऐसा कुहासा है जो उस स्वर्गिक ज्योतिको आवृत्त करता है। २. देखिए " हिन्दू-मुस्लिम एकता ", १४-९-१९२४ । Gandhi Heritage Portal