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ईश्वर एक है

सच पूछिए तो औसत दर्जेके मुसलमान ही 'वेदों' तथा दूसरे हिन्दू धर्म-ग्रन्थों की अपौरुषेयताको या कृष्ण अथवा रामके पैगम्बर या अवतार होनेकी बातको कुबूल नहीं करेंगे। हिन्दुओंके लिए तो 'कुरान शरीफ' या पैगम्बर साहबको भला-बुरा कहनेकी रीति एक बिलकुल ही नयी चीज है जो अभी-अभी शुरू हुई है। हिन्दुओंकी जमातमें मैंने पैगम्बर साहब के प्रति आदरभाव देखा है। यहाँतक कि हिन्दुओंके कुछ गीतोंमें भी इस्लामकी तारीफ पाई जाती है।

अब सूत्रके पहले भागको लीजिए। ईश्वर वाकई एक और अद्वितीय है। वह अगम, अगोचर और मानव-जातिके अधिकांश के लिए अज्ञात है। वह सर्वव्यापी है। वह बिना आँखोंके देखता है, बिना कानोंके सुनता है। वह निराकार और अखण्ड है। वह अजन्मा है, उसके न माता है, न पिता है, न सन्तान-फिर भी वह पिता, माता, पत्नी या सन्तान के रूप में पूजा ग्रहण करता है। यहाँतक कि वह काष्ठ और पाषाणके रूपमें भी पूजा-अर्चनाको अंगीकार करता है, हालाँकि वह न तो काष्ठ है, न पाषाण ही। वह हाथ नहीं आता--पकड़में आता दिखता है और निकल जाता है। अगर हम उसे पहचान सकें तो वैसे वह हमारे बिलकुल नजदीक है। पर यदि हम उसकी सर्व-व्यापकताको अनुभव न करना चाहें तो, वह हमसे अत्यन्त दूर है। 'वेद' में अनेक देवता हैं। दूसरे धर्म ग्रन्थ उन्हें देवदूत आदि दूसरे नाम देते हैं। पर 'वेद' एक ही ईश्वरका गुण-गान करते हैं।

मुझे 'कुरान' को ईश्वर-प्रेरित माननेमें कोई संकोच नहीं होता, जिस प्रकार कि 'बाइबिल,' 'जेन्द-अवेस्ता,' या 'ग्रन्थ साहब' तथा दूसरे पुण्य-धर्मग्रन्थोंको मानने में नहीं होता। ज्ञानका ईश्वरकृत प्रकाश किसी एक ही राष्ट्र या जातिकी सम्पत्ति नहीं है। यदि मुझे हिन्दू-धर्मका कुछ भी ज्ञान है, तो वह मूलतः ग्रहणशील, सदा वर्द्धमान और परिस्थिति के अनुरूप नवीन रूप धारण करनेवाला है। उसमें कल्पना, अनुमान और तर्कके लिए पूरी-पूरी गुंजाइश है। 'कुरान' और पैगम्बर साहबके प्रति आदर-भाव उत्पन्न करनेमें मुझे हिन्दुओंके नजदीक कभी जरा भी दिक्कत महसूस नहीं हुई। पर हाँ, मुसलमानोंके अन्दर वही आदर भाव 'वेदों' और अवतारोंके प्रति उत्पन्न करनेमें मैंने अलबत्ता दिक्कत अनुभव की है। दक्षिण आफ्रिकामें मेरे एक बहुत अच्छे मुसलमान मुवक्किल थे। अफसोस है, अब वे दुनियामें नहीं रहे। हमारा वकील-मुवक्किलका रिश्ता आगे चलकर घनिष्ठ मंत्री और पारस्परिक आदरभावका हो गया था। हम बहुत बार धार्मिक चर्चाएँ भी किया करते थे। मेरे वे मित्र किसी अर्थमें विद्वान् तो नहीं कहे जा सकते, पर उनकी बुद्धि कुशाग्र थी। वे 'कुरान' की सब बातें जानते थे। उन्हें दूसरे धर्मोकी भी कुछ बातोंका ज्ञान था। मुझे इस्लाम स्वीकार कराने में वे दिलचस्पी रखते थे। मैंने उनसे कहा, "मैं 'कुरान शरीफ' और पैगम्बर साहबके प्रति पूरा-पूरा आदर-भाव रख सकता हूँ; पर आप 'वेदों' और अवतारोंको न माननेका इसरार क्यों करते हैं? उन्हींकी मदद से तो में आज जो कुछ हूँ, हो पाया हूँ। 'भगवद्गीता' और तुलसीदासकी 'रामायण' से मुझे अपार शान्ति मिलती है। मैं खुल्लमखुल्ला कबूल करता हूँ कि 'कुरान', 'बाइबिल' तथा दुनिया के अन्यान्य धर्मोके प्रति मेरा अति आदर-