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शौकत अली से बातचीत

वीसनगर में श्री अब्बास तैयबजी और महादेवके पल्ले भी बेरुखी ही पड़ी। अहमदाबादमें भी आग भड़कने जा रही थी, लेकिन उसे प्रारम्भमें ही शमित कर दिया गया। जब मैं गुजरातसे चला, उस समय उमरेठमें कुछ मुसीबत खड़ी हो रही थी। मुझे हाथपर-हाथ धरे चुपचाप यह सब देखना पड़े, इससे प्रकट होता है कि मैं कितना असमर्थ हूँ। मैं अब भी सैकड़ों बहनोंके स्नेह-सौजन्यका भाजन हूँ। आज वे भयके मारे मरी जा रही हैं। मैं खुद ही एक उदाहरण पेश करके उन्हें मरनेका रास्ता दिखाना चाहता हूँ।

अगर दोनों जातियोंके बीच खरी, खुली और ईमानदारी तथा बहादुरीकी लड़ाई हो तो लड़ाईकी मुझे कोई चिन्ता नहीं। लेकिन आज तो यह लड़ाई लड़ाई नहीं, घोर कायरताकी शर्मनाक कहानी है। लोग पथराव करते हैं और भाग जाते हैं, हत्या करते हैं और भाग खड़े होते हैं। वे अदालतोंमें जाते हैं, झूठी गवाहियाँ देते हैं, झूठे सबूत पेश करते हैं। कितनी दर्दनाक स्थिति है? मैं कैसे, किस तरह उन्हें बहादुर बनाऊँ? आप अपने तई पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन मुझे भी तो अपने-भर पूरी कोशिश करनी चाहिए। मुझे वह शक्ति प्राप्त करनी ही है, जिससे में उन्हें प्रभावित कर सकूँ।

नहीं, आप असफल नहीं हुए हैं। उन्होंने आपकी बात सुनी थी; वे आपकी बात सुन भी रहे थे। लेकिन आपकी अनुपस्थितिमें उन्हें सलाह देनेवाले दूसरे लोग भी तो थे। उन्होंने उनकी बात सुनी और गलत रास्ता अख्तियार कर लिया। मुझे पूरा विश्वास है कि वे अब भी अपनी गलती महसूस करेंगे। जनसाधारणके मनमें जहर कम करनेके लिए आपने बहुत कुछ किया है। मैं तो इन उपद्रवोंकी कोई परवाह नहीं करूँगा। मैं तो सीधे उनसे जाकर कहूँगा, "शैतानो, यह शैतानियतका खेल जी भरकर खेल लो। लेकिन सबके ऊपर खुदा बराबर बैठा हुआ है। तुम एक-दूसरेको भले ही मार डालो, लेकिन उसे नहीं मार सकते।" तो प्यारे भाई, खुदाके आड़े न आइए। आप तो उसके खिलाफ लड़ रहे हैं। अब वह होने दीजिए, जो वह चाहता है।

तो क्या मैं उससे लड़ रहा हूँ? अगर मुझमें कोई अभिमान या अहम् है तो वह अब समाप्त हो चुका है। सच मानो प्यारे भाई, यह उपवास मैंने निरन्तर कई दिनतक प्रार्थना करते रहने के बाद ही शुरू किया है। मैंने रातके तीन-तीन बजेतक जगकर उससे पूछा है कि बताओ, अब क्या करूँ। १७ सितम्बरको उसका जवाब मेरे सामने बिजलीकी तरह कौंध गया। अगर मैंने गलती की है तो वह मुझे माफ करेगा। मैंने जो कुछ भी किया है, जो कुछ कर रहा हूँ, पूरी तरह मनमें उसका भय रखते हुए किया है, और कर रहा हूँ। और सो भी कहाँ? खुदासे डरकर चलनेवाले एक मुसलमानके घर। मेरा धर्मं मुझे यह सिखाता है कि जो कष्ट सहनके लिए तैयार है, वही ईश्वरसे प्रार्थना कर सकता है, याचना कर सकता है। मेरे धर्ममें उपवास और प्रार्थना दोनों एक ही तरह के विधान हैं। लेकिन, मैं तो इस्लाममें भी ऐसे तपके बारेमें जानता हूँ। मैंने पैगम्बर साहबकी जीवनीमें पढ़ा है कि वे अकसर उपवास और प्रार्थना किया करते थे, लेकिन दूसरोंको अपनी नकल