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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करने से मना करते थे। किसीने उनसे पूछा कि जो चीज आप खुद करते हैं, उसे दूसरोंको क्यों नहीं करने देते। उनका उत्तर था: "क्योंकि मैं दैवी पोषणपर जीता हूँ।" उनकी बड़ी-बड़ी उपलब्धियोंमें से अधिकांश उपवास और प्रार्थनाका परिणाम थीं। मैंने उनसे यह सीखा है कि जिसका ईश्वरमें अनन्त विश्वास हो वहीं उपवास कर सकता है। पैगम्बर साहबको इलहाम ऐशो-आरामकी घड़ियोंमें नहीं हुआ करते थे। वे उपवास करते थे, प्रार्थना करते थे, लगातार कई राततक जागते रहते थे और जब उन्हें इलहाम होता था उस समय वे सारी रात खड़े रहते थे। इस समय भी मैं अपने सामने उपवास और प्रार्थनारत पैगम्बर साहबका चित्र देख रहा हूँ। भाई शौकत, मैं यह सहन नहीं कर सकता कि लोग आपपर और आपके भाईपर मेरे साथ किये गये वादेको तोड़नेका इलजाम लगायें। आपपर ऐसा आरोप लगाया जाये, इस बातका खयाल भी मेरे लिए असह्य है। मुझे इसके लिए मर मिटना चाहिए। यह उपवास मैं सिर्फ अपनी शुद्धिके लिए, शक्ति प्राप्त करने के लिए कर रहा हूँ। मुझे गलत न समझें। मैं आपसे इस तरह बातें कर रहा हूँ, मानो मैं मुसलमान होऊँ। इसका कारण यह है कि मैंने अपने मनमें इस्लामके प्रति वहीं श्रद्धा जगा ली है जो आपमें है। इस्लामके प्रति अपनी समस्त श्रद्धाका विश्वास दिलाते हुए मैं कहूँगा कि उपवास और प्रार्थनाके बाद मुझमें दोनों जातियोंको अपनी बात समझानेकी ज्यादा ताकत आ जायेगी। यह मेरा अपना पक्का विश्वास है कि शरीरको जितना ही तपाया जाये, आत्माका रंग उतना ही निखरता है। हमें हुल्लड़बाजी के खिलाफ लड़ना है, उसे रोकना है पर अभी हममें उसके लिए अपेक्षित पर्याप्त आत्मिक शक्ति नहीं है।

यहाँ आकर शौकत अलीने अपनी दलीलका रुख बदल दिया।

क्या यह सोचना भी आपका फर्ज नहीं है कि आपके इस लम्बे उपवाससे देशको कितना बड़ा सदमा पहुँचेगा?

नहीं, बिलकुल नहीं। क्योंकि आदमी बहुत बार अपने-आपको धोखा देता है। वह अकसर दूसरोंको खुश करनेके लिए ऐसे काम करता है, जिससे उसे बचना चाहिए। इसलिए मनुष्य के लिए धर्मकी सीख यही है कि कोई संकल्प लेनेके बाद वह दुनिया के सामने उसपर दृढ़ रहकर खड़ा रहे। और यह कितना बड़ा मिथ्याभिमान है कि कोई सोचे कि दुनिया उसकी भारी तपस्या देखकर स्तब्ध रह जायेगी। और हम किस-किसकी इच्छाका खयाल रखें? इसका तो कहीं अन्त ही नहीं है। अगर राम सलाह लेने और दलील करनेके लिए रुके रहते तो वे कभी भी वनवासको न जाते और धरतीके दुःख दूर नहीं कर पाते। वे किसीकी सलाहके लिए नहीं रुके। बस, निकल पड़े। क्यों? क्योंकि वे अपनी प्रतिज्ञाको अपने जीवनसे अधिक मूल्यवान मानते थे। कोई भी बड़ा संकल्प वही आदमी कर सकता है जिसकी ईश्वरमें प्रबल आस्था हो और जो ईश्वरसे डरकर चलनेवाला हो।

एक बात और। क्या ऐसा निश्चय करनेसे पहले आपको किसीसे सलाह नहीं कर लेनी चाहिए? क्या आपके लिए इसका भी खयाल करना जरूरी नहीं कि आपके स्वास्थ्य और शरीरपर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?