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टिप्पणी

गया हूँ। कटिस्नानके तुरन्त बाद नहानेमें कोई हर्ज नहीं है। एक दूसरा प्रयोग भी करना। एक छोटी-सी पीले रंगकी बोतल खरीद लेना। उसमें स्वच्छ पानी भरकर तीन घंटेतक धूपमें रखना। रातको उसमें से दो औंस पानी पीकर सो जाना। इस तरह धूपमें गरम किया हुआ इतना पानी रोज पीना। यदि वह गरम करनेके बाद ठण्डा हो जाये तो उसकी फिक्र न करना। उद्देश्य यह है कि पानीको सूर्यकी किरणें पीले पात्र के माध्यमसे मिलें। कहते हैं कि इस तरह तैयार किये गये पानीकी तासीर दस्तावर हो जाती है।

बापूके आशीर्वाद

श्रीमती वसुमती पण्डित
मार्फत मेसर्स स्ट्रॉस ऐंड कं०

गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू ४५७) से।

सौजन्य: वसुमती पण्डित

१३८. टिप्पणी

निराश नहीं, असहाय[१]

देखता हूँ, ऐसा कहा गया है कि अपनी उपवास-सम्बन्धी टिप्पणीमें मैंने कहा, "मेरी निराशा तो और भी असह्य है।" मैंने इस विषयमें जो बात कही है उसमें "निराशा" नहीं "असहायावस्था" शब्दका प्रयोग किया गया है। जिस व्यक्तिकी ईश्वर में तनिक भी आस्था है, वह कभी निराश नहीं होता, क्योंकि वह सदा इस बात में विश्वास रखता है कि अन्तमें सत्यकी ही विजय होती है। ईश्वर में विश्वास रखनेवाला व्यक्ति कभी भी असत्यके पीछे नहीं भागता और इसलिए वह कभी निराश हो ही नहीं सकता। इसके विपरीत चारों ओर घिरते अंधकारमें उसकी आशा सबसे अधिक चमक उठती है। लेकिन, मेरी असहायावस्था मेरे सामने एक स्पष्ट तथ्य के रूपमें मौजूद है। मैं इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे तो इसे बराबर स्वीकार ही करना चाहिए। तमिलमें एक बड़ी अच्छी कहावत है: "निराशकी एकमात्र आशा ईश्वर ही है।" इस कहावतमें छिपा सत्य मेरे सामने आज जितना उजागर कभी नहीं हुआ था। जिस व्यक्तिकी क्षमता ईश्वरने इतनी ज्यादा सीमित कर दी हो, उसके लिए इतने विशाल जन समुदायको अपने साथ चलाना, उसे नियंत्रित रखना, उसके प्रतिनिधि के रूपमें बोलना और काम करना इतना आसान तो नहीं है। इसलिए बराबर सतर्क रहने की आवश्यकता है। पाठकगण इस बातके लिए आश्वस्त रहें कि यह आखिरी कदम मैंने अपनी असहायावस्थाकी पूरी प्रतीति हो

  1. देखिए "पत्र: देवदास गांधीको", २१-९-१९२४।