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उनके प्रति हमारा कर्तव्य

पहले अर्पित कीं। उनका काम परम्परागत अर्थों में राजनीतिक नहीं था, किन्तु सिर्फ इसी कारण वह कोई कम साहसपूर्ण काम नहीं था और फिर यह बात भी याद रखनी चाहिए कि जब वे जापानमें थे, उन्होंने ब्रिटेन द्वारा दूसरे देशोंके शासन और शोषणकी कटु आलोचना करते हुए एक लेख लिखा था, जिसके कारण वे परेशानीमें पड़ गये थे; किन्तु इसकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की। जब वे मृत्यु-शय्यापर पड़े थे, उन्होंने एक वसीयतनामा लिखाया, जिसमें वे शान्तिनिकेतनके उस बालकको नहीं भूले जिसे वे पुत्रवत् प्यार करते थे। उनकी मृत्युके बाद महाकविने उनका स्मारक बनाने के लिए २५,००० रुपयेके लिए एक अपील निकाली। उस पैसेसे शान्तिनिकेतनमें 'पियर्सन अस्पताल' का निर्माण होना था। उन दिनों मैं जुहूमें स्वास्थ्य-लाभ कर रहा था और एन्ड्रयूज एक अभिभावककी भाँति मेरी देख-रेख कर रहे थे। एक दिन आकर उन्होंने प्रेम और व्यथा-विह्वल हृदयसे मुझे बताया कि लोगोंने महाकविकी अपीलकी ओर बहुत कम ध्यान दिया। मैंने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा कि भारतकी जनता तो उन्हें ज्यादा नहीं जानती थी और इसलिए हम लोगोंको, जो उनको इतनी अच्छी तरह जानते हैं, उसके सहयोग न करनेपर परेशान न होना चाहिए और न हमारे मनमें जनता के प्रति कोई कड़वाहट ही आनी चाहिए। मैंने उनसे यह भी कहा कि कोई अनुकूल अवसर आनेपर मैं महाकविकी अपीलका काम अपने हाथमें लूँगा और स्मारकके लिए जनताका सहयोग प्राप्त करने की कोशिश करूँगा। श्री एन्ड्रयूजने मुझे वह अवसर प्रदान किया है। अब मैं 'यंग इंडिया' के पाठकोंसे यथा-शक्ति अपना-अपना योगदान करनेका अनुरोध करता हूँ। तीन हजारसे ऊपर तो इकट्ठा किया जा चुका है। अब शेष इक्कीस हजार रुपये जुटा पाना उदार जनताके लिए बहुत मामूली बात है।

श्री एन्ड्रयूजने इस लेखमें जिस तीसरी चीजको पिरोया है, वह है---चरखा। इसको उन्होंने शायद मेरा खयाल करके ही शामिल किया है। लेकिन, मैं जानता हूँ कि वह समय आ रहा है, जब चरखेको अपने अस्तित्वके लिए मुझपर निर्भर नहीं करना पड़ेगा। देशके बड़ेसे-बड़े आदमीको भी, यदि उसे गरीबोंके साथ सहानुभूति है तो चरखेका समर्थन करना ही पड़ेगा। सिर्फ चरखेमें ही यह खूबी है कि उसे जहाँ भारतके सभी लोग अपना सकते हैं, वहाँ उससे इतनी कमाई भी की जा सकती है जिससे देशके गरीब किसानोंके स्वल्प अर्थ-साधनकी यत्किचित् पूर्ति हो सके, इतना ही नहीं इससे देशके करोड़ों भूख- पीड़ितोंको जीवित रहने के लिए दो कौर भोजन भी प्राप्त हो सकता है। यह एक ऐसी चीज है जो अमीरोंकी ओरसे अकालपीड़ित जनताको दिये जानेवाले सदाव्रतोंकी पतनकारी प्रथाका स्थान ले सकती है और उनके मनमें ऐसा आत्म-विश्वास पैदा कर सकती है कि जबतक वे कताईके लिए तैयार हैं, उन्हें भूखों नहीं मरना पड़ेगा।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २-१०-१९२४