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१४१. धर्मके लिए "अधर्म"

एक सज्जन पूछते हैं:

"मलाबार-संकट निवारणके लिए यदि कोई जुआ खेले और जुएसे मिलनेवाला पैसा मलाबारके पीड़ितोंको देनेका प्रस्ताव करे तो उसके जुआ खेलनेको आप क्या कहेंगे---उचित या अनुचित?"

जुआ खेलना सर्वथा त्याज्य है। यदि जुए के बिना संकट-निवारण न होता हो तो भले ही लाखों भाई-बहन भूख और दुःखसे मर जायें। अधर्मसे धर्मकी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। इसलिए मेरी सबको सलाह है कि कोई भी मलाबारके दुःखी भाई-बहनोंके लिए जुआ न खेले। परन्तु हाँ, वे जुआ खेलना बन्द करके उसकी बचतका रुपया मुझे जरूर भेज दें। इससे एक पन्थ दो काज होंगे। एक तो वे खुद इस कुटेवसे बचेंगे और दूसरे कुटेवमें लगनेवाली रकम बचेगी, जो उन लोगोंके काममें आ जायेगी जिन्हें उसकी जरूरत है। जो व्यक्ति संकट दूर करनेका विचार करता हो उसके मनमें जुआ खेलने की बात आ ही कैसे सकती है? वह तो खुद भूखा रहकर औरोंकी भूख बुझायेगा।

लेखक ओरपाड ताल्लुकेके अपने गाँव करमलामें प्रचलित भीषण जुएका हुबहू चित्र खींचकर कहते हैं कि उसमें लड़केतक शरीक होते हैं। कभी-कभी तो उसमें बड़े लड़ाई-झगड़े भी हो जाते हैं। वे इसका उपाय पूछते हैं। इलाज यह है कि वहाँ लोकमत उसके खिलाफ तैयार किया जाय। लोकमतका ऐसी बुराइयोंपर बड़ा असर होता है। जिस तरह उजाला होते ही चोर आदि छिप जाते हैं उसी तरह लोकमत रूपी सूर्यका प्रकाश होते ही ये बुराइयाँ दूर हो जाती हैं। यदि गाँवके ज्यादातर लोग जुआ खेलते हों और सिर्फ दो-चार लोग ही इस ऐबसे बरी हों तो वे पहले गाँववालोंको चेतावनी दें और यदि उसके बाद भी कुछ असर न हो तो वे गाँव छोड़कर चले जायें।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २१-९-१९२४