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१४२. 'नवजीवन' के पाठकोंसे

इस अंकके प्रकाशित होनेतक मेरे प्रायश्चित्तकी खबर तो आप लोगोंको मालूम हो ही गई होगी। मेरे अनशनसे आपको घबड़ा जानेकी जरूरत नहीं है। उसका अनुकरण तो आप हरगिज न कीजियेगा। प्रायश्चित्त जिसको करना हो उसीको करना चाहिए। दूसरे लोग सिर्फ उसे मदद करते रहें। आप सब गुजराती भाई-बहन उन कामोंमें तन, मन और धनसे मदद कीजिये, जिन्हें आपने अंगीकार किया है। इससे आपको ईश्वर भी मिलेगा और स्वराज्य भी।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २१-९-१९२४

१४३. श्रद्धाकी परीक्षा

मुझे आशंका थी कि बहिष्कारके त्यागकी बातसे राष्ट्रीय स्कूलोंके दुर्बल क्षेत्रोंमें कुछ अस्थिरताका वातावरण उत्पन्न हो जायेगा। लगता है कि उसका ऐसा असर हुआ है। कितने ही शिक्षक पूछने लगे हैं कि क्या अब राष्ट्रीय स्कूलोंको सरकारी स्कूलोंमें परिवर्तित न किया जायेगा?

उपर्युक्त उद्धरण मैंने एक पत्रमें से लिया है। पहली बात तो यह है कि मैंने बहिष्कारका 'त्याग' करनेकी बात नहीं कही है; 'त्याग' शब्दका उच्चारणतक नहीं किया है। मैंने तो उसे 'मुल्तवी' रखनेका सुझाव दिया है। दूसरी बात यह कही है कि वर्तमान राष्ट्रीय स्कूल जिस तरह अभी सरकारसे किसी तरह का सम्बन्ध रखे बिना चल रहे हैं, उसी तरह चलाये जायें और यदि हममें शक्ति हो तो हम नये राष्ट्रीय स्कूलोंकी स्थापना भी करें। तीसरी बात यह है कि मुल्तवी रखनेका अर्थ यह कदापि नहीं है कि जिनकी बहिष्कारमें अपनी स्वतन्त्र श्रद्धा है, उन्हें भी उसका त्याग करना चाहिए।

मेरे सुझावका अर्थ केवल इतना ही है कि जो लोग अपनी स्वतन्त्र श्रद्धासे प्रेरित होकर नहीं, बल्कि कांग्रेसके अनुशासनमें बद्ध होकर, बहिष्कार कर रहे हैं वे एक वर्षके लिए इससे मुक्त किये जाते हैं; और जो बहिष्कारके कारण कांग्रेससे बाहर रहे हैं वे कमसे कम आगामी वर्षके लिए कांग्रेस में शरीक हो जायें और जिन आवश्यक और सर्वमान्य कार्योंके बारेमें कोई मतभेद नहीं है, उनमें भाग लें और जनताको प्रशिक्षित करें।

मेरे सुझावसे जनताकी और व्यक्तियोंकी परीक्षा हो जायेगी। यदि चार वर्षके अनुभवके बाद यह मालूम हुआ कि स्वतन्त्र रूपसे बहिष्कारको माननेवालोंकी संख्या