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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अल्प है तो कांग्रेसमें बहिष्कार कदापि नहीं चल सकता। कांग्रेस जनताकी इच्छाको ही व्यक्त कर सकती है, फिर वह चाहे अच्छी हो चाहे बुरी और तभी वह राष्ट्रीय संस्था मानी जानी चाहिए। अतः कांग्रेसकी प्रवृत्तिके रूपमें केवल ऐसी ही प्रवृत्ति सफलतापूर्वक चलाई जा सकती है जिसमें बहुसंख्यक लोगोंकी अपनी स्वतन्त्र श्रद्धा हो। किसी प्रवृत्तिको कांग्रेस के प्रस्तावके कारण ही स्वीकार करनेवालोंकी संख्या हमेशा कम ही होनी चाहिए। उनकी मददसे कांग्रेसका तन्त्र नहीं चल सकता, बल्कि कांग्रेस स्वयं उनके लिए सहारा सिद्ध होती है। वे कांग्रेसको कोई सहारा नहीं दे सकते। कांग्रेसका आधार तो स्वतन्त्र श्रद्धावाले लोग ही होने चाहिए। यदि पाठक संसारकी चालू संस्थाओंकी ओर दृष्टिपात करेंगे तो वे देखेंगे कि प्रत्येक प्राणवान् संस्थाका संचालन उपर्युक्त नियमके अनुसार ही होता है। कारण स्पष्ट है। संस्थाके अपने प्राण नहीं होते, उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता। संस्थाके प्राण उसके संचालक होते हैं। वे ही संस्थाको बल प्रदान करते हैं। मद्य-निषेध संघके प्राण उसके अडिग मद्य त्यागी सदस्य ही होते हैं। संघ त्यागियोंके त्यागमें वृद्धि नहीं कर सकता। लेकिन कल्पना कीजिए कि ऐसे सदस्य अच्छी संख्यामें न मिलें और इस कारण संघको बन्द करना पड़े तो क्या इसलिए वे लोग, जो मद्य-त्यागी हैं, मद्यपान करने लगेंगे या कि वे लोगोंको मद्यका त्याग करनेकी बात सिखाने के लिए तपश्चर्या करते हुए अन्य उपायोंकी खोज करेंगे?

मेरे सुझावका उद्देश्य यह स्पष्ट कर देना है कि हम बहिष्कारको लोगोंके साथ जोर-जबरदस्ती करके नहीं चलाना चाहते। जोर-जबरदस्तीमें हिंसा है। हमारे आन्दोलनकी कल्पना तो जोर-जबरदस्ती नहीं थीं, परन्तु हमारे मनमें और हमारे कार्योंमें वह थी। इसका पक्का प्रमाण है, हिन्दू-मुसलमानोंके बीच फैला हुआ वर्तमान वैमनस्य। स्वराज्यवादी और अपरिवर्तनवादीके बीच जो खाई है वह भी इसी ओर संकेत करती है। इसका निवारण करना स्वतन्त्रतावादीका प्रथम कार्य है। मैंने जिस तरह जोर-जबरदस्तीका अर्थ हिंसा किया है उसी तरह मैं स्वतन्त्रताका अर्थ अहिंसा करता हूँ। हम अहिंसा शब्दसे डरते हैं। हम सब स्वतन्त्रताके पुजारी होनेका दावा करते हैं; लेकिन उसके मूल स्वरूप, अहिंसा अथवा प्रेमकी हम उपेक्षा करते हैं। हम लोगोंमें व्याप्त इस दोषको मैंने देख लिया है। इसीसे मुझे अपने कर्त्तव्यका भान हो गया है और मैं प्रत्येक बहिष्कारवादीको यह बात समझाने की कोशिश करता हूँ। यदि बहिष्कारमें कांग्रेसके अधिकांश सदस्योंकी श्रद्धा नहीं है तो बहिष्कारमें स्वतन्त्र श्रद्धा रखनेवाले चन्द लोगोंका कांग्रेसपर अधिकार बनाये रखना हिंसा है।

लेकिन ऐसे लोग कांग्रेसपर अधिकार बनाये रखें अथवा कांग्रेस बहिष्कारको स्थगित कर दे, इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं है कि बहिष्कारमें जिनकी श्रद्धा और विश्वास है, वे बहिष्कारका त्याग कर दें। वस्तुतः तो हमें बहिष्कारको स्थगित करके यह देखना है कि कितने लोग सच्चे अर्थोंमें बहिष्कारवादी हैं। यदि ऐसे बहिष्कारवादियोंकी संख्या वर्षके अन्तम थोड़ी ही रह जाये तो यह बात सिद्ध हो जायेगी कि कांग्रेसमें बहिष्कारकी बात नहीं रखनी चाहिए। आज जो लोग अपने-आपको बहिष्कारवादी मानते हैं, यदि वर्षके अन्तमें भी वे अपने विचार और आचारपर