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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं खूब आनंदमें हुँ। मेरी थोड़ी सी भी चिन्ता न करें।

बापूके आशीर्वाद

तुलसी मेहर
सत्याग्रह आश्रम
साबरमती

मूल पत्र (जी० एन० ६५२०) की फोटो-नकलसे।

१४९. उपवासकी कहानी

२२ सितम्बर, १९२४

मैं पाठकोंको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मैंने उपवास बिना सोचे-समझे प्रारम्भ नहीं किया। सच तो यह है कि जबसे असहयोगका जन्म हुआ, तभी से मेरी जिन्दगी बराबर दाँवपर लगी रही है। इसे मैंने खूब सोच-समझकर शुरू किया। इसमें जो खतरे हैं, उनके बारेमें मुझे काफी चेतावनी मिल चुकी थी। मैं कोई भी काम बिना प्रार्थनाके नहीं करता। मनुष्यसे भूल होती ही है। वह कभी भी विश्वास-पूर्वक यह नहीं कह सकता कि वह जो कुछ करने जा रहा है, वह सही ही है। जिससे वह अपनी प्रार्थनाके परिणामस्वरूप ईश्वरसे प्राप्त इंगित समझ सकता है, वह मात्र उसके अहंकारकी प्रतिध्वनि भी हो सकती है। ईश्वरका अचूक मार्गदर्शन तो वह तभी प्राप्त कर सकता है, जब उसका हृदय सर्वथा निर्दोष हो और उसमें बुराईके लिए कोई गुंजाइश ही न हो। मैं अपने बारेमें ऐसा कोई दावा नहीं करता। मेरी आत्मा तो अपूर्ण है और वह अभी उठती-गिरती, भूलती-भटकती, सही मार्ग पानेका प्रयत्न ही कर रही है; लेकिन मैं अपने और दूसरोंके ऊपर प्रयोग करके ही तो ऊपर उठ सकता हूँ। मैं ईश्वरकी अखण्ड एकता, और इसीलिए मानव समाजकी भी अखण्ड एकतामें विश्वास करता हूँ। हम शरीरसे अनेक हैं, लेकिन इससे क्या अन्तर पड़ता है? हमारी आत्मा तो एक ही है। परावर्तन के कारण सूर्यकी किरणें अनेक दिखाई देती हैं, लेकिन उनका उद्गम तो एक ही है। इसलिए मैं दुष्टसे-दुष्ट व्यक्तिसे भी अपनेको अलग नहीं कर सकता (और न सज्जनसे-सज्जन व्यक्तिसे मेरी तद्रूपताके बारेमें इनकार किया जा सकता है)। इसलिए मैं चाहूँ या न चाहूँ, मैं अपने प्रयोगमें समस्त मानव-जातिको शामिल किये बिना नहीं रह सकता और न इस प्रयोगके बिना ही मैं रह सकता हूँ। जीवन प्रयोगोंकी एक अन्तहीन श्रृंखला ही तो है।

मुझे मालूम था कि असहयोग एक खतरनाक प्रयोग है। असहयोग अपने-आपमें एक अस्वाभाविक, बुरी और पापमय वस्तु है। लेकिन, मेरा निश्चित विश्वास है कि अहिंसात्मक असहयोग कभी-कभी मनुष्यका कर्त्तव्य हो जाता है। यह बात मैंने अनेक