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उपवासकी कहानी

प्रसंगोंपर सिद्ध करके दिखा दी है। लेकिन, जन-साधारणकी बहुत बड़ी संख्यापर उसका प्रयोग करनेमें गलतीकी बहुत सम्भावना थी। किन्तु, असाध्य रोगोंके लिए वैसे ही कड़े उपचारकी ही आवश्यकता होती है। सामने अराजकता और उससे भी बुरी स्थितिका खतरा मौजूद था। उसका एक-मात्र विकल्प अहिंसात्मक असहयोग ही था। और चूँकि असहयोगको अहिंसात्मक रखना था, इसलिए मुझे अपनी जिन्दगीको दाँव पर लगा देना पड़ा।

अभी दो साल पहले जो हिन्दू और मुसलमान मित्रोंकी तरह मिल-जुलकर काम करते दिखाई दे रहे थे, वे ही आज कुछ स्थानोंमें आपसमें भेड़ियोंकी तरह गुँथे हुए हैं। इससे यह बात असन्दिग्ध रूपसे सिद्ध हो जाती है कि उन्होंने जो असहयोग किया वह अहिंसात्मक नहीं था। इसके लक्षण मुझे बम्बईकी घटनाओं, चौरी-चौरा तथा बहुत-से दूसरे छोटे-मोटे मामलोंमें भी दिखाई दिये थे। तब मैंने प्रायश्चित्त किया था। उस हदतक उसका असर भी हुआ। लेकिन, हिन्दू-मुस्लिम तनाव तो कल्पनातीत बात थी। जब कोहाटके दुष्काण्डका हाल सुना तो वह असह्य हो उठा। जब मैं साबरमतीसे दिल्ली रवाना होनेवाला था, उससे पहले सरोजिनी देवीने मुझे लिखा कि शान्तिपर प्रवचन और उपदेश देनेसे काम नहीं चलेगा। आपको कोई कारगर उपाय ढूँढ़ना है। उनका यह जिम्मेवारी मेरे सिर लादना ठीक ही था। क्या जनताकी भारी शक्तिको जाग्रत कर देनेके लिए मैं ही जिम्मेवार नहीं था? अगर यह शक्ति आत्म-विनाशका कारण बन रही है तो मुझे कोई उपचार ढूँढ़ना ही है। मैंने उन्हें उत्तरमें लिखा कि इसे तो मैं परिश्रमसे ही पा सकूँगा। कर्महीन प्रार्थना निस्सार चीज है। तब मैं नहीं जानता था कि इसका उपचार यह दीर्घ उपवास होगा। फिर भी, मैं जानता हूँ कि मेरी आत्माकी व्यथा शान्त करनेकी दृष्टिसे यह उपवास काफी लम्बा नहीं है। क्या मुझसे कोई गलती हुई है; क्या मैंने धीरजसे काम नहीं लिया है? क्या मैंने बुराईके साथ कभी समझौता किया है? हो सकता है, मैंने यह सब किया हो और हो सकता है कि इसमें से कुछ भी न किया हो। मैं तो जो सामने देख रहा हूँ, वही जानता हूँ। जो लोग आज लड़ रहे हैं, उन्होंने अगर सच्ची अहिंसा और सत्यका आचरण किया होता तो जो रक्त-रंजित लड़ाई आज चल रही है, वह असम्भव थी। स्पष्ट है कि इसमें कहीं-न-कहीं मेरी जिम्मेवारी अवश्य है।

अमेठी, सम्भल और गुलबर्गाके काण्डोंसे मुझे जबरदस्त आघात पहुँचा। हिन्दू और मुसलमान भाइयों द्वारा अमेठी और सम्भलके बारेमें तैयार की गई रिपोर्ट मैंने पढ़ी थीं। गुलबर्गा जाकर मामलेकी जाँच करनेवाले हिन्दू और मुसलमान भाइयोंका संयुक्त निष्कर्ष भी मैंने देखा था। मैं पीड़ासे छटपटा रहा था, फिर भी कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। कोहाटका समाचार पाकर मेरे अन्तरकी सुलगती हुई आग भभक उठी। अब कुछ-न-कुछ करना ही था। दो रातें मैंने बेचैनी और कष्टमें काटीं। बुधवारको मुझे उपाय सूझ गया। मैंने निश्चय किया, मुझे प्रायश्चित्त करना होगा। सत्याग्रह आश्रममें प्रातःकालीन प्रार्थनामें हम शिवकी एक स्तुति करते हैं: और कहते हे शिव,