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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाने-अनजाने मैंने जो पाप किये हैं, उसके लिए मुझे क्षमा कर।[१] मेरा प्रायश्चित्त अनजानमें किये गये पापोंको क्षमा करने के लिए एक व्यथित हृदयकी प्रार्थना ही है।

यह उन हिन्दुओं और मुसलमानके लिए एक चेतावनी है जो कहते हैं कि उन्हें मुझसे प्रेम है। अगर वे सचमुच मुझसे प्रेम करते रहे हैं और यदि मैं उनके प्रेमका योग्य पात्र रहा हूँ तो वे अपने आचरणके द्वारा ईश्वरकी अवज्ञा करनेके घोर पापके लिए मेरे साथ प्रायश्चित्त करेंगे। एक-दूसरेके धर्मकी निन्दा करना, बिना सोचे-समझे जो मनमें आये कहते रहना, झूठ बोलना, निरीह लोगोंके सिर फोड़ना, मन्दिरों या मसजिदोंकी पवित्रता भंग करना, यह सब ईश्वरकी अवज्ञा ही है। हमारे इस यादवी संघर्षको दुनिया देख रही है---कुछ खुशीके साथ और कुछ दुःखके साथ। हम शैतानका कहा मान बैठे हैं। धर्म चाहे कोई भी हो उसका पालन ऐसे आचरणसे नहीं होता; उसके लिए तो कठोर अनुशासनकी आवश्यकता होती है। हिन्दुओं और मुसलमानोंका प्रायश्चित्त उपवास करना नहीं, बल्कि उन्होंने जो गलत रास्ता ग्रहणकर लिया है उसे छोड़कर सही रास्तेपर आ जाना है। अपने हिन्दू भाइयोंके प्रति मनमें कोई दुर्भावना न रखना ही मुसलमानों के लिए सच्चा प्रायश्चित्त है और उसी प्रकार मुसलमानोंके प्रति ऐसी कोई भावना न रखना हिन्दुओंके लिए सच्चा प्रायश्चित्त है।

मैं किसी भी हिन्दू या मुसलमानसे अपने धार्मिक सिद्धान्तको रंच-मात्र भी छोड़नेको नहीं कहता, बशर्ते कि उसे इस बातका इत्मीनान हो कि जिसे वह धार्मिक सिद्धान्त कह रहा है वह सचमुच धार्मिक सिद्धान्त ही है। लेकिन, यह तो मैं हर हिन्दू और मुसलमानसे कहता हूँ कि वह भौतिक लाभके लिए आपस में न लड़े। अगर मेरे उपवासके कारण दोनोंमें से कोई भी पक्ष सिद्धान्त के मामलेमें कहीं झुकता है तो मुझे बहुत दुःख होगा। मेरा उपवास तो मेरे और ईश्वरके बीचकी बात है।

इस मामलेमें मैंने किसी मित्रसे कोई सलाह नहीं ली। बुधवारको हकीम साहबसे बिलकुल एकान्तमें काफी देरतक बातचीत हुई और मौलाना मुहम्मद अलीके घर तो मैं ठहरा हुआ ही हूँ। वे ही मेरे मेजबान हैं। किन्तु, इन लोगोंसे भी कोई सलाह नहीं ली। जब कोई व्यक्ति अपने स्रष्टासे अपना देना-पावना दुरुस्त करना चाहता है तो वह किसी तीसरेकी सलाह नहीं लेता--लेनी भी नहीं चाहिए। लेकिन, अगर उसके मनमें इस विषयमें कोई शंका हो तब तो उसे सलाह लेनी ही चाहिए। लेकिन, मैंने जो कदम उठाया, उसकी आवश्यकताके सम्बन्धमें मेरे मनमें कोई शंका नहीं थी। मित्र लोग तो मुझे उपवास करनेसे रोकना अपना कर्त्तव्य समझेंगे। ऐसी बातें सलाह-मशविरे और दलीलका विषय नहीं होतीं। ये तो हृदयकी अनुभूतिकी चीजें हैं। जब रामने एक बार कर्त्तव्य-पालनका निश्चय कर लिया तो न स्नेहमयी

  1. १. मूल संस्कृत श्लोक इस प्रकार है:

    "कर चरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
    श्रवण-नयनजं वा मानसं वाऽपराधम्।
    विहितमविद्दितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
    जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो!"