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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है--चार आनेसे भी नहीं---न मिल्कियतसे और न तालीमसे, वह सिर्फ 'सच्ची मेहनतसे' परखी जाती है। इस तरह सोवियत कांग्रेसको सिर्फ काम करनेवालोंका संगठन समझिए। क्या दार्शनिक, क्या अध्यापक और क्या दूसरे तमाम लोग, सबके लिए कुछ-न-कुछ काम करना लाजिमी है। मुझे नहीं मालूम कि उन्हें मेहनत किस तरहकी करनी पड़ती है। मैंने चन्द मिनटोंमें ही उसे उलट-पलट देखा। इससे अगर यह बात उसमें कहीं दिखाई भी गई हो तो मुझे मिल नहीं पाई। उसमें हमारे लिए जो महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक बात है वह यह कि हरएक मतदाताको कुछ-न-कुछ ठोस काम करके दिखाना पड़ता है। ऐसी अवस्थामें मेरा यह प्रस्ताव कि अबसे कांग्रेसका सदस्य होनेकी इच्छा रखनेवाले हर व्यक्तिको चाहिए कि वह अपने राष्ट्रके लिए शारीरिक श्रम करे, न तो मौलिक है और न हास्यास्पद ही। यह देखते हुए कि एक महान राष्ट्रने पहलेसे ही इस सूत्रको मंजूर कर लिया है, हमें उसका अनुकरण करनेमें झेंपनेकी कोई जरूरत नहीं। थोड़े समयतक रोज की जानेवाली मेहनत कभी फल दे सकती है, जब लाखों-करोड़ों लोग एक ही किस्मकी मेहनत करें और हमारे देशके सदृश विशाल देशमें ऐसा शारीरिक काम, जिसका घर-घर प्रचार हो सके, हाथ- कताईके सिवा दूसरा नहीं है।

लेकिन कहा जाता है कि यह प्रस्ताव महज शारीरिक कामका प्रस्ताव नहीं है; उसके अन्दर आर्थिक पात्रता छिपी हुई है। सूत कितना ही महीन क्यों न कते, एक साल के दौरान काते जानेवाले सूतका परिमाण इतना तो नहीं घटाया जा सकता कि चार आनेकी कीमतका सूत कातनेसे ही काम चल जाये। पर आलोचक इस बातको भूल जाते हैं कि मैंने अपने प्रस्तावकी रूप-रेखा जिस लेखमें दी है, उसमें मैंने कहा है कि जो लोग रुईकी व्यवस्था खुद नहीं कर सकते उन्हें प्रान्तीय कांग्रेस कमेटियोंकी तरफसे रुई मिलनी चाहिए। इस प्रकार मेरी योजना के अधीन लोग जो कपास बिना मूल्य प्रदान करेंगे, वह चन्दा नहीं, बल्कि दान होगा। अनुभव बताता है कि हजारों लोग हर साल २४,००० गज सूत कातनेके लिए जरूरी कपासकी व्यवस्था खुद ही सम्भव बना सकते हैं। इस बार अखिल भारतीय खादी बोर्डमें लगभग ५,००० लोगोंने सूत भेजा है। उन्होंने खादी बोर्ड से रुई नहीं माँगी। मुमकिन है कि कुछ प्रान्तोंने कतैयोंको रुई देनेका इन्तजाम किया हो। अगर उन्होंने ऐसा किया हो तो कुछ बेजा नहीं; क्योंकि असली चीज तो है आधा घंटा शारीरिक श्रम करना। हमारे राष्ट्रके इस क्षयका कारण कच्चे मालकी कमी नहीं, बल्कि शारीरिक श्रम और कमसे-कम जरूरी हुनरका अभाव है। हमें अपने हाथोंसे मेहनत करनेकी आदत नहीं रह गई है। इसीसे मेरा यह प्रस्ताव कुछ लोगोंको अप्रिय मालूम होता दिखाई देता है और राष्ट्रकी एक ही आवश्यकताकी पूर्तिके लिए सारा देश अपनी राजी-खुशीसे रोजाना आधा घंटा समय देने लगे, इस बातसे होनेवाले लाभों को समझना उन्हें कठिन मालूम हो रहा है। निश्चय ही मेरे प्रस्तावमें नैतिकता के विरुद्ध तो कुछ भी नहीं है। उसमें ऐसी भी कोई बात नहीं है जो किसीकी अन्तरात्मा के खिलाफ पड़ सकती हो। यह काम कोई बहुत भारी भी नहीं है। सच तो यह है कि आधे घंटेका यह हलका