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पत्र: मोतीलाल नेहरूको

मुझे सिखाता है कि एक बार वचन देनेके बाद या किसी अच्छे उद्देश्यके लिए कोई व्रत लेनेके बाद उसे तोड़ना नहीं चाहिए और आप जानते ही हैं कि मेरा जीवन पिछले ४० वर्षोंसे भी अधिक समयसे इसी आधारपर चलता आया है।

इस उपवासके कारण इतने गहरे हैं कि उन्हें इस पत्रमें समझाया नहीं जा सकता। एक चीज़ तो यही है कि मैं इस उपवासके द्वारा अपना विश्वास व्यक्त कर रहा हूँ। असहयोगकी कल्पना एक अंग्रेजके विरुद्ध घृणा अथवा दुर्भावके वशमें होकर नहीं की गई थी। उसके अहिंसात्मक स्वरूपका उद्देश्य यह था कि हम अंग्रेजोंको अपने प्रेमसे जीतें। लेकिन असहयोगका यह परिणाम तो नहीं ही निकला, उलटे उससे जो जोश और उत्साह उत्पन्न हुआ उसने हमारे ही बीच घृणा और दुर्भावको जन्म दे दिया है। यह इसी तथ्यका ज्ञान है जिससे विवश होकर मैंने पश्चात्ताप करनेका यह अटल निश्चय किया है।

अतः अब यह उपवास मेरे और ईश्वरके बीचकी बात है। इसलिए मैं इसे न तोड़ने के लिए आपसे क्षमा ही नहीं चाहूँगा, बल्कि आपसे यह भी कहूँगा कि मुझे प्रोत्साहन दें और मेरी तरफसे प्रार्थना करें कि यह व्रत सफलतापूर्वक समाप्त हो।

मैंने मरनेकी इच्छासे उपवास शुरू नहीं किया है, बल्कि देशकी सेवा के लिए एक बेहतर और ज्यादा पवित्र जीवन जीनेके लिए किया है। अतः यदि मैं किसी ऐसी संकटकी स्थिति में पहुँच गया (जिसकी मुझे कोई सम्भावना नहीं दिखाई देती) जहाँ मुझे मौत और भोजनमें से किसी एकको चुनना हो तो मैं निश्चय ही उपवास[१] तोड़ दूँगा। डा० अन्सारी और डा० रहमान, जो बड़े ध्यान और सावधानी के साथ मेरी देख-रेख कर रहे हैं, आपको बतायेंगे कि मैं बिलकुल तरोताजा बना हुआ हूँ।

इसलिए मैं आदरपूर्वक सम्मेलनसे कहूँगा कि उसका प्रस्ताव जिस व्यक्तिगत स्नेहका सूचक है, उस स्नेहको उस एकताके लिए, जिसके लिए कि सम्मेलन बुलाया गया है, ठोस, हार्दिक और सच्चे कामका रूप दे।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजी से ]
यंग इंडिया, २-१०-१९२४
  1. गांधीजीके उपवासके सम्बन्धमें मथुरादास त्रिकमजीने महादेव देसाईंको पत्र लिखा था। बापुनी प्रसादी में यह और इससे पहलेवाला वाक्य "मथुरादास त्रिकमजीके लिए टिप्पणी" के रूपमें दिया गया है।