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१७४. टिप्पणी

मैं मुसलमान क्यों नहीं होता

एक मुसलमान भाई लिखते हैं:

आपका दावा है कि 'मैं सत्याभिलाषी, सत्य-शोधक और सत्य-ग्राहक हूँ।' साथ ही आपने यह भी लिखा है कि 'इस्लाम मिथ्या धर्म नहीं है।' खुदाका खास फरमान है कि दुनियाके हर शख्सको इस्लाम कबूल करना चाहिए। फिर भी आप मुसलमान क्यों नहीं होते? एक हिन्दू नेताका ध्यान जब मैंने परिशिष्टांक १४ की[१] ओर खींचा, तब उन्होंने कहा कि यह तो गांधीजीने मुसलमानोंको खुश रखनेके लिए लिख दिया है। गांधीजीके दिलमें इस्लामके लिए मुहब्बत नहीं है।

इन भाईने आग्रहपूर्वक जवाब माँगा है। यह धर्म तो कहीं नहीं सुना कि जो मिथ्या न हो वह सब हर आदमीको करना ही चाहिए। जिस तरह मैं इस्लामको मिथ्या नहीं मानता, उसी तरह मैं ईसाई, पारसी, यहूदी धर्मोंको भी मिथ्या नहीं मानता। तो फिर मैं किस धर्मको कबूल करूँ? फिर, मैं हिन्दू-धर्मको भी मिथ्या नहीं मानता। ऐसी अवस्थामें मुझ जैसे सत्य-शोधकको क्या करना चाहिए? मुझे इस्लाममें खूबियाँ दिखाई दीं और इसीलिए मैंने कहा कि यह धर्मं मिथ्या नहीं है। यह कहनेकी जरूरत इसलिए हुई कि इस्लामपर चोट की गई है। और चूँकि मैं मुसलमान भाइयोंके साथ मित्रता रखना चाहता हूँ, इसलिए मैंने उनके धर्मका बचाव किया। हर आदमीकी नजरमें उसका अपना धर्म सर्वश्रेष्ठ होता है; इसीसे वह अपने ही धर्ममें रहता है। इसी तरह हिन्दू-धर्म मुझे मिथ्या नहीं मालूम होता; इतना ही नहीं, बल्कि सबसे श्रेष्ठ मालूम होता है। इसलिए मैं अपने धर्मसे उसी तरह चिपटा हुआ हूँ जिस तरह बालक अपनी माँसे चिपटा रहता है। परन्तु बालक जिस प्रकार परायी माताका तिरस्कार नहीं करता, उसी प्रकार मैं भी पर-धर्मका तिरस्कार नहीं करता। अपने धर्मके प्रति मेरा प्रेम, अपने-अपने धर्मके प्रति दूसरोंके प्रेमकी भी कद्र करना सिखाता है और मैं हमेशा ईश्वरसे यह प्रार्थना करता रहता हूँ कि यह बात हर हिन्दू और मुसलमान सीखे।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन५-१०-१९२४
  1. नवजीवनका १४ वा परिशिष्टांक १ जून, १९२४ को प्रकाशित हुआ था और उसमें २९-५-१९२४ के यंग इंडियामें हिन्दू-मुस्लिम तनावपर लिखे एक लेखका अनुवाद छपा था। देखिए खण्ड २४, पृष्ठ १३९-१५९।