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पत्र: ना० मो० खरेको

शाह बनने का ख्वाब देखा, पर आज वह एक मामूली आदमी है। ईश्वरकी यही इच्छा थी। हम ऐसे उदाहरणोंपर विचार करें और विनम्र बनें।

सौभाग्य और शान्तिके इन दिनोंमें, जबकि मुझे ईश्वरकी कृपाका अनुभव होता रहा है, मैं अकसर एक भजन गुनगुनाता रहा हूँ। वह सत्याग्रह आश्रममें अकसर गाया जाता है। वह इतना भावपूर्ण है कि मैं उसे पाठकोंके सामने उपस्थित करनेकी प्रसन्नताका संवरण नहीं कर सकता। मैं खुद जितना कह सकता हूँ उससे कहीं ज्यादा अच्छी तरह उस भजनका भाव ही मेरी स्थितिको प्रदर्शित करता है।

भजन इस प्रकार है:

रघुबर तुमको मेरी लाज।
सदा-सदा मैं सरन तिहारी, तुम बड़े गरीब निवाज॥
पतित उधारन बिरुद तिहारो श्रवणन सुनी अवाज।
हौं तो पतित पुरातन कहिये पार उतारो जहाज॥
अघ खण्डन दुख भंजन जनके यही तिहारो काज।
तुलसीदासपर किरपा करिये भक्ति-दान देहु आज॥

[ अंग्रेजी से ]
यंग इंडिया, ९-१०-१९२४

१७७. पत्र: ना० मो० खरेको

आश्विन सुदी ९-१० [ ७ अक्तूबर, १९२४ ][१]

भाई पण्डितजी,[२]

यह पत्र उपवासके अन्तिम दिन लिख रहा हूँ। आत्माके विकासके लिए संगीतके महत्त्वकी प्रतीति मुझे दिन-दिन होती जा रही है। मैं चाहता हूँ, आप इस बातके लिए खूब प्रयत्न करें कि हमारे भजन सब लोग अर्थ समझकर गाने लगें। आश्रमवासी अभी जो भजन गाते हैं, उनमें लीन नहीं होते। इस समय बालकृष्णके[३] यहाँ होनेसे मुझे बड़ी मदद मिली। सब बालकृष्ण-जैसे क्यों नहीं हो सकते? सभी भक्त सदासे भजनोंमें लीन होते आये हैं। रामभाऊ[४][ प्रार्थनाके समय ] तनकर नहीं बैठता। उसे तनकर बैठने की आदत डालिए।

  1. डाककी मुहरसे।
  2. नारायण मोरेश्वर खरे, आश्रममें संगीतके अध्यापक; डांडी यात्रा- दलके एक सदस्य।
  3. बालकृष्ण न० भावे; सत्याग्रह आश्रमके निवासी।
  4. पण्डित खरेका पुत्र।