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१८६. पत्र: स्वामी श्रद्धानन्दको

आश्विन कृष्ण २ [ १४ अक्तूबर, १९२४ ][१]

आपकी चीट्ठी मीली है।...वाइकोम के बारेमें में प्रबंध कर रहा हूँ। और मुझे उम्मीद है कि सत्याग्रहीयोंको सहाय पहोंच जायगी। आपकी स्टेटमेंट मैंने ध्यानसे पढ़ ली है। उसको मेरे हि पास रखुँगा।

आपका,
मोहनदास गांधी

संन्यासी स्वामी श्री श्रद्धानन्द
बर्न बैशन रोड, दिल्ली

मूल पत्र ( जी० एन० २२०६ ) की फोटो नकलसे।

१८७. असहयोगीका कर्त्तव्य

बुधवार, आश्विन बदी ३ [ १५ अक्तूबर, १९२४ ]

ऐसा कहा जा सकता है कि कांग्रेसके अगले अधिवेशनमें असहयोग स्थगित हो जायेगा। लेकिन, इससे असहयोगीका काम स्थगित नहीं होनेवाला है। सच तो यह है कि असहयोगका जो आभास-मात्र था, वही मुल्तवी रहेगा क्योंकि जहाँ प्रेम है, वहाँ वस्तुतः सहयोग और असहयोग एक ही हैं।

बेटा बापके साथ और बाप बेटेके साथ सहयोग करे अथवा असहयोग दोनों प्रेमके ही फल होने चाहिए। स्वार्थ के वशीभूत होकर किया गया सहयोग सहयोग नहीं, घूस है। इसी प्रकार द्वेष-भावसे किया गया असहयोग महापाप है। ये दोनों त्याज्य हैं।

जो असहयोग १९२० में शुरू किया गया, उसके मूलमें प्रेम था, भले ही लोग उसे न देख पाये हों, भले ही वे उसमें द्वेष-भावसे शामिल हुए हों। फिर भी, अगर सभी नेताओंने उसके मूल स्वरूपको समझा होता और उसके अनुसार आचरण किया होता तो जो कटु परिणाम निकले, वे न निकलते।

हमने शान्तिपूर्ण असहयोगका तत्त्व नहीं समझा इसीलिए वैर-भाव बढ़ा और अब हम अपनी करनीका फल भोग रहे हैं। हमने जिस वैर-भाव से अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग किया, वह वैर-भाव अब हमारे ही बीच पैदा हो गया है।

यह वैर भाव सिर्फ हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच ही नहीं, सहयोगियों और असहयोगियोंके बीच भी आ गया है।

  1. डाककी मुहरसे।