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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसलिए, असहयोगके ऐसे उलटे परिणामोंको रोकने के लिए हमें असहयोगको अभी स्थगित रखना है। असहयोगको स्थगित रखने का मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है कि जो वकील वकालत करना चाहें और जो विद्यार्थी फिरसे सरकारी स्कूलोंमें जाना चाहें उनके वैसा करनेमें अब शर्मकी कोई बात नहीं है। सच तो यह है कि जिन वकीलोंने असहयोग के सिद्धान्तको समझ लिया होगा, वे फिरसे वकालत करेंगे ही नहीं। इसी तरह, ऐसे विद्यार्थी भी दोबारा सरकारी स्कूलोंमें जानेवाले नहीं हैं। परन्तु असहयोग के स्थगित रहनेका परिणाम तो यह निकलना चाहिए कि हम पश्चात्ताप करें; असहयोगी सहयोगीको गले लगाये, उसे प्रेमसे जीते, उससे द्वेष न करे। भले ही वह सरकारी सहायता लेता हो, सरकारी वकील हो, सरकारी नौकर हो या विधानसभाका सदस्य हो, असहयोगी उससे मिले-जुले और हिन्दू-मुस्लिम झगड़ेको निबटाने, अस्पृश्यताको दूर करने, विदेशी कपड़ोंका बहिष्कार सम्पन्न करने, शराब-अफीमकी बुराई दूर करने और इसी तरहके दूसरे बहुत-से कामों में ऐसे सभी लोगों की मदद ले और उन्हें मदद दे।

ऐसे काममें पहल असहयोगियोंको ही करनी है। उसमें असहयोगियोंकी सूझ- बूझ, उनके विवेक, उनकी विनय, उनकी शान्तिप्रियता, उनकी नम्रता, सबकी परीक्षा होनी है। सहयोगियोंको प्रेमसे जीतनेमें असहयोगियोंकी योग्यताकी कसौटी होगी। एक ओर उन्हें झूठी खुशामदसे बचना है और दूसरी ओर उद्धततासे दूर रहना है। इन दोनों पक्षोंको साधने के लिए हम सबको एक होकर रहना है, यही हमारे लिए पहला पाठ है । ईश्वर हमारी सहायता करे।

[ गुजराती से ]
नवजीवन, १९-१०-१९२४

१८८. पत्र: गंगाबहन वैद्यको

आश्विन बदी ३ [ १५ अक्तूबर, १९२४ ]

पूज्य गंगाबहन,

आपका पत्र मिला। पढ़कर बड़ी खुशी हुई। मैं चाहता हूँ, आप वहाँ निश्चिन्त होकर रहें और सब-कुछ सीख लें। कोई उलझन आये तो मुझे सूचित करें। जो भी कठिनाइयाँ सामने आई हों, मुझे बतायें; मैं तुरन्त उत्तर लिख भेजूँगा। आपका अभ्यास कहाँतक पहुँचा है, लिखेंगी। बच्चे बम्बई क्यों गये?

मुझमें दिन-दिन शक्ति आती जा रही है। वहाँ आनेके लिए मैं अधीर हो रहा हूँ, लेकिन लगता है, कोहाट जानेसे पहले न आ सकूँगा।

मोहनदासके आशीर्वाद

गुजराती पत्र ( सी० डब्ल्यू० ६०९७ ) से।

सौजन्य: गंगाबहन वैद्य