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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चाहे जो हो, जमीन-आसमान फट पड़े, पर सच ही बोलना, कभी झूठ न बोलना, रास्तेमें लुटेरे मिले। वे अब्दुल कादरके साथके काफले के एक-एक आदमीको लूटने लगे। अब्दुल कादरकी बारी आई तो उनसे पूछा कि तेरे पास क्या है। उन्होंने कुरतेमें सी हुई अशरफी बताई। डाकू चकित रह गये और उन्होंने न केवल उनको छोड़ दिया, बल्कि उनकी सचाईका यह असर हुआ कि उन्होंने दूसरोंकी लूटी हुई सारी चीजें भी वापस कर दीं।

ऐसी मिसालें तो इस्लाममें भरी पड़ी हैं ही; पर आप [ धर्मान्तरण की दृष्टिसे ] इन्हें हिन्दुओं के सामने पेश करें, यह ठीक नहीं है। क्या अकेले इस्लाममें ही ऐसी मिसालें मिलती हैं? हिन्दू-धर्ममें भी ऐसी मिसालें कदम-कदमपर मिलती हैं। परन्तु जिस प्रकार ऐसी मिसालोंके कारण किसीको अपना धर्म छोड़कर हिन्दू बननेकी जरूरत नहीं है, उसी प्रकार अब्दुल कादरकी जैसी मिसालोंको देखकर भी किसी को इस्लाम स्वीकार करनेकी जरूरत नहीं है। इस्लाममें अब्दुल कादर-जैसे बहुत-से लोग हों और उन्हें देखकर सारा हिन्दुस्तान मुसलमान हो जाये तो उसकी मुझे जरा चिन्ता नहीं; परन्तु जिस प्रकार हिन्दुओंमें अच्छे और बुरे दोनों तरहके लोग हो गये हैं। उसी प्रकार इस्लाममें अच्छे लोग हैं तो बुरे लोग भी हैं। मैं नहीं चाहता कि आप अब्दुल कादरकी मिसाल इस्लाम कबूल कराने के लिए पेश करें। आप हिन्दुओंसे दूसरी बहुत-सी बात भी तो कह सकते हैं; फिर ढेढ़ और भंगियोंसे मुसलमान बन जानेको ही क्यों कहते हैं? आप हिन्दुओंसे कह सकते हैं: आपके बीच तो बड़े-बड़े उदार चरित्र व्यक्ति हो गये हैं, आप तो प्राणि-मात्रमें अभेद-भाव मानते हैं, फिर आप किसी मनुष्यको अस्पृश्य किस तरह मान सकते हैं? इन्सानको अछूत बनाये रखनेमें आपको शर्म नहीं आती? इस प्रकार आप हिन्दू धर्म की सेवा कर सकते हैं। मैं अब्दुल कादर साहबकी मिसाल पेश करके मुसलमानोंसे कह सकता हूँ कि ऐसे सत्य-प्रेमी, अमन-पसन्द, दुश्मनको भी माफ करनेवाले, साधु पुरुष आपके मजहब में पड़े हुए हैं। ऐसा कोई काम आप कैसे कर सकते हैं जिससे उनके नामको बट्टा लगे? यह कहकर मैं इस्लामकी सेवा करूँगा। फिर, यदि हम अपने धर्मको इतना स्वच्छ कर लें जिससे कि दूसरोंको खुद ही उसमें आनेकी इच्छा हो तो उन्हें कौन रोक सकता है?

पर किसीकी गरीबीसे फायदा उठाकर यदि कोई किसीसे कहे कि ले भाई, मैं तुझे इतना रुपया दूँगा, तेरा कर्ज उतार दूँगा; तेरे धर्मवाले तुझे परेशान करते हैं, आ तू हमारे मजहबमें आ जा तो यह बुरी बात है। ऐसी हालतमें वह इस्लाममें अपनी इच्छासे नहीं आता है, बल्कि पैसेके लालचसे आता है। मुहम्मद साहबके पास जो लोग आते थे, उन्हें क्या बढ़िया-बढ़िया खाना मिलता था? खजूर और पानी और अगर वह भी न मिले तो फाका! फिर भी उनके व्यक्तित्वसे आकर्षित होकर, उनकी रूहानी ताकतसे प्रेरित होकर बहुतेरे लोग उनके पास जाते थे और इस्लाम कबूल करते थे। यदि फिर कोई मुहम्मद साहब पैदा हों और उनके प्रभावसे सारा संसार मुसलमान हो जाये तो मैं उसकी तनिक भी चिन्ता न करूँगा।

मैं जो इतना कह रहा हूँ वह इसीलिए कि मैं इस्लामकी खूबियाँ समझता हूँ। मैं नहीं मानता कि इस्लामका प्रचार तलवार के बलपर हुआ है। इस्लामका