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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनुभव कर रहा हूँ कि पाठ्यक्रममें हम अक्षरज्ञानपर, जितना चाहिए उससे, ज्यादा जोर देते हैं और उसके परिणामस्वरूप हम देख रहे हैं कि पाठ्य-पुस्तकोंकी संख्या में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है।

हम इस भ्रममें पड़े हुए हैं कि बालक जबतक ककहरा नहीं सीख लें, तबतक उन्हें और कोई ज्ञान दिया ही नहीं जा सकता। मेरे जानते तो यह शिक्षा-संसारमें व्याप्त सबसे बड़ा भ्रम है। मेरी दृढ़ मान्यता है कि इस भ्रममें पड़कर हम बालकोंके विकासमें बाधा डालते हैं। मेरी यह मान्यता इस अनुभवपर आधारित है कि बालकोंको अक्षरज्ञान मिलनेसे पहले भी उनका मानसिक विकास हो सकता है। इतना ही नहीं पहले अक्षरज्ञान देनेसे तो बालकोंका विकास अवरुद्ध होता है। सात वर्षके बच्चेको ककहरा सीखने में रोक रखनेके बजाय अगर शिक्षक उसे मौखिक रूपसे कुछ सिखाये तो उसका कितना अधिक विकास होता है, यह हर शिक्षक एक ही मासके अनुभव से जान सकता है। शिक्षक बातों ही बातोंमें बालकोंको इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदिकी शिक्षा दे सकते हैं। 'रामायण' और 'महाभारत' का सार बालक एक ही वर्षमें भली-भाँति सीख सकता है। सामान्यतया तो उनकी जानकारी उसे स्कूल में चार-पाँच वर्ष पढ़ चुकने के बाद ही मिलती है। 'माँ, पानी दो' इतना पढ़ने और समझनेमें बालकका एक वर्ष चला जाये, यह कितनी दयनीय स्थिति है? हम बालकपर अक्षरज्ञानका बोझ डालकर उसकी प्रगतिमें बाधा डालते हैं, उसे ज्ञानसे वंचित रखते हैं, उसकी स्मरणशक्तिको बढ़ने से रोकते हैं और उसे जल्दीसे-जल्दी ककहरा सिखानेकी धुनमें उसकी लिखावट बिगाड़ देते हैं; उसे बचपनसे ही किताबी कीड़ा बना देते हैं और अन्तमें यह कि गरीब हिन्दुस्तानपर बेकारकी पुस्तकें खरीदने का निरर्थक बोझ डालते हैं।

अगर मैं शिक्षकोंको समझा सकूँ तो प्राथमिक शिक्षाके लिए पाठ्य पुस्तकों को बन्द करवा दूँ या उन्हें रखूँ भी तो सिर्फ शिक्षकों के लिए ही रखूँ। ऐसी पुस्तकों की रचना अलग पद्धतिसे ही होगी। बालकोंको ककहरा सिखाने के बदले चित्र बनाना सिखाऊँ, जिससे वे प्रारम्भसे ही सुन्दर आकृतियाँ खींचना सीख लें। ककहरा सीखते-सीखते भले ही उसे दो-तीन वर्ष लग जायें; किन्तु इन तीन वर्षोंमें उन्हें मौखिक रूपसे काफी व्यावहारिक और धार्मिक ज्ञान सिखाया जा सकता है। 'गीताजी' आदिमें से उसे श्लोक रटाकर उसकी स्मरणशक्ति बढ़ाई जा सकती है। इससे उनके कानों को शब्दोंको सही-सही सुनने, जीभको सही-सही उच्चारण करने और आँखोंको अवलोकनकी शिक्षा मिलेगी। इस तरह बालकोंमें अनेक शक्तियोंका विकास एक साथ किया जा सकता है। इस बीच एक विशेष कलाके रूपमें उन्हें अक्षर-ज्ञान भी कराया जा सकता है। आजकल तो नौजवानोंकी भी लिखावट इतनी खराब होती है कि उसे देखनेसे विरक्ति होती है, पढ़ने से मन उकता जाता है। मैंने यह वाक्य व्यक्तिगत अनुभवसे लिखा है, क्योंकि मेरी लिखावट इतनी खराब है कि मुझे किसीको पत्र लिखते शर्म आती है और अपनी कच्ची और अनगढ़ लिखावटपर मेरा मन बराबर खिन्न होता रहता है। जिस प्रकार कच्चा अन्न खाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार कच्ची लिखावट लिखनेवाला