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जी० रामचन्द्रन् के साथ बातचीत

हैं। उन्होंने बिना किसी कठिनाईके अपने गुरुसे दिल्लीमें कुछ समय और रुकनेकी अनुमति प्राप्त कर ली थी। उस दिन शामको दिल्लीसे रवाना होनेसे पहले श्री एन्ड्रयूज उन्हें लेकर ऊपरकी मंजिलमें आये और उन्होंने गांधीजीसे कहा कि "मैंने अभीतक आपसे रामचन्द्रन्‌का परिचय तो कराया ही नहीं, हालाँकि इन दिनों बराबर वह यहाँ साथ रहकर हमारी सहायता करता रहा है। यह आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता है। कल यह शान्तिनिकेतन लौट जायेगा। अगर आप उससे पहले इससे थोड़ी देर बातचीत कर लें तो मुझे बड़ी खुशी होगी?" लेकिन 'कल' का दिन तो महात्माजीका मौन-दिवस, सोमवार था। इसलिए रामचन्द्रन् एक दिन और रुक गये। मंगलवारकी सुबह उन्हें कलकत्तेकी गाड़ी पकड़नी थी। इसलिए प्रातः प्रार्थनाके बाद ठीक साढ़े पाँच बजे उन्हें बुलाया गया। उन्होंने अपने सभी प्रश्न--जिन शंकाओं और उलझनोंसे उनका मन परेशान था--लिख रखे थे। फिर भी पहले तो उन्हें अपने-आपपर इतना भरोसा ही नहीं हो रहा था कि वे जो-कुछ पूछना चाहते हैं, पूछ भी सकेंगे। किन्तु, आखिर उन्होंने साहस बटोरा और तब बड़े आश्चर्यसे देखा कि बापूने उनसे उनके बारेमें, उनके घर-बार और अध्ययन आदिके सम्बन्ध में इतने सौजन्यसे पूछताछ की कि उनकी सारी हिचक और घबराहट हवा हो गई। उस दिन सुबह रामचन्द्रन्को गांधीजीसे जितनी बातचीत करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, उसे पूरा-पूरा दे सकना असम्भव है। यहाँ तो मैं बहुत संक्षेपमें उसका सार मात्र दे सकता हूँ।

[ रामचन्द्रन्: ] आपको स्नेह और सराहनाकी दृष्टिसे देखनेवाले बहुतसे समझदार और प्रसिद्ध लोग भी ऐसा मानते हैं कि आपने जाने-अनजाने राष्ट्रीय पुनरुत्थानकी योजनामें कलाका कोई खयाल नहीं किया है। ऐसा क्यों?

[ गांधीजी: ] मुझे दुःखके साथ कहना पड़ता है कि इस विषयमें लोगोंने आम तौरपर मुझे गलत ही समझा है। हर चीजके दो पक्ष होते हैं---एक बाह्य और दूसरा आन्तरिक। यहाँ कुल सवाल यह है कि महत्त्व किसको दिया जाये। मैं ऐसा मानता हूँ कि बाह्य पक्षका महत्त्व उसी हदतक है जहाँतक कि वह आन्तरिक पक्षकी परिष्कृतिमें सहायक है; उससे अधिक उसका कोई महत्त्व नहीं है। इस प्रकार, सभी सच्ची कला आत्माकी अभिव्यक्ति होती है। कलाके बाह्य रूपोंका महत्त्व वहीं तक हैं जहाँतक उनसे मनुष्यकी आत्माकी अभिव्यक्ति होती है।

बड़े-बड़े कलाकारोंने तो स्वयं ही कहा है कि आत्माकी तृषा और आकुलताको शब्दों, रंगों, आकृतियों आदिमें अभिव्यक्तिका नाम ही कला है।

हाँ, और ऐसी कला मेरे मनको सबसे ज्यादा छूती है। किन्तु, मैं जानता हूँ कि ऐसे बहुतसे लोग हैं जो अपने-आपको कलाकार कहते हैं और कलाकार माने भी जाते हैं, लेकिन उनकी कृतियोंमें आत्मा के ऊर्ध्वमुखी स्फुरण और आकुलताका लेश भी नहीं होता।