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जी० रामचन्द्रन् के साथ बातचीत

दुश्चरित्र होते हुए भी?

किन्तु, उस दशामें तो उसकी मुखाकृति सुन्दर हो ही नहीं सकती।उसपर तो बराबर वही भाव प्रस्फुटित होगा जो उसके भीतर है। जिसे दृष्टि है ऐसा कलाकार उसकी मुखाकृतिपर ठीक भावको भी उभार देगा।

लेकिन, ऐसा कहकर तो तुम मेरे प्रश्नको ही दुहरा रहे हो। तुम अब यह स्वीकार कर रहे हो कि कोई वस्तु अपनी बाहरी सुघड़ताके कारण ही सुन्दर नहीं हो जाती। सच्चे कलाकारके लिए वही मुखाकृति सुन्दर है, जिसपर अन्तरका सत्य झलकता हो; वाह्य रूप क्या और कैसा है, इसको वह कोई महत्त्व नहीं देता। तो, जैसा कि मैंने कहा, सत्यसे अलग कोई सौन्दर्य नहीं है। दूसरी ओर, सत्य ऐसी रूपाकृतियों में अभिव्यक्त हो सकता है जो बाहरसे किसी तरह सुन्दर न हो। कहते हैं, सुकरात अपने समय के सबसे सत्यपरायण व्यक्ति थे, किन्तु ऐसा बताते हैं कि उनकी रूपाकृति यूनान भरमें सबसे असुन्दर थी। मेरी दृष्टिमें वे बहुत सुन्दर थे, क्योंकि उनका समस्त जीवन सत्यकी अन्वेषणामें बीता और तुम्हें याद होगा कि उनकी असुन्दर रूपाकृतिके बावजूद फीडियस उनके अन्तरके सत्यमें निहित सौन्दर्यकी सराहना किये बिना नहीं रह सका, यद्यपि एक कलाकारके नाते वे वाह्य रूपोंमें भी सौन्दर्यको देखनेके अभ्यस्त थे।

लेकिन, बापूजी, सुन्दरतम कला-कृतियोंका निर्माण तो अकसर ऐसे व्यक्तियोंने किया है, जिनके अपने जीवन सुन्दर नहीं रहे हैं!

इसका मतलब तो यही है कि सत्य और असत्य अकसर साथ-साथ रहते हैं; बुराई और अच्छाई अक्सर साथ-साथ मिलती हैं। कलाकारमें भी सम्यक् दृष्टि और असम्यक् दृष्टिका अस्तित्व बहुधा एक साथ देखनेको मिलता है। सचमुच सुन्दर कृतियोंका सृजन वह तब करता है जब उसकी सम्यक् दृष्टि क्रियाशील होती है। यदि ऐसे क्षण जीवनमें बहुत कम आते हैं तो कला-सृजनमें भी कम ही आते हैं।

यदि सिर्फ सत्यमूलक और अच्छी चीजें ही सुन्दर हो सकती हैं तो ऐसी कोई चीज जिसमें कोई नैतिक गुण न हो कैसे सुन्दर हो सकती है?....जो चीजें अपने आपमें न नैतिक हैं और न अनैतिक उनमें भी क्या सत्य होता है? उदाहरणके लिए, क्या सूर्यास्तमें या रातमें तारोंके बीच चमकनेवाले बंकिमचन्द्रमें भी कोई सत्य होता है?

बेशक, इनका सौन्दर्य भी सत्यमूलक है, क्योंकि ये मुझे उस स्रष्टाकी महिमाका भान कराते हैं, जिसका हाथ इनके पीछे है। सृष्टिके मूलमें जो सत्य है, उसके बिना ये सब सुन्दर कैसे हो सकते थे? जब मैं सूर्यास्तकी अद्भुत छटाको अथवा चन्द्रमाके सौन्दर्य को देखता हूँ तो मेरी आत्मा स्रष्टाकी आराधनामें प्रफुल्लित हो उठती है। मैं इन तमाम कृतियोंमें उसे और उसकी दयाको देखनेका प्रयत्न करता हूँ। किन्तु, यदि सूर्यास्त और सूर्योदय मुझे उसके चिन्तनकी प्रेरणा न दें तो मैं उन्हें भी अपने लिए बाधा ही मानूँगा। जो भी वस्तु आत्माके ऊर्ध्वगमनमें बाधक है, वह मोक्षके मार्गमें अकसर बाधा डालनेवाले शरीरकी ही तरह भ्रम है, पाश है।