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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कलाके सम्बन्धमें आपके विचार सुनकर मैं सचमुच कृतार्थ हो गया। मैं उन्हें समझता और स्वीकार करता हूँ लेकिन अगर आप भावी पीढ़ीके सही मार्गदर्शनके लिए उन्हें सुबद्ध रूपमें प्रस्तुत कर दें तो क्या यह अच्छा नहीं हो?

ऐसा करने की तो मैं सपनेमें भी नहीं सोच सकता। उसका सीधा-सादा कारण यह है कि कलाके सम्बन्धमें ज्यादा कुछ कहना मेरे लिए धृष्टता होगी। मैं कोई कलाका अध्येता नहीं हूँ, यद्यपि उसके सम्बन्धमें ये मेरे बुनियादी विचार हैं। मैं अपनी सीमाओंसे भली-भाँति अवगत हूँ, इसलिए इस विषयपर मैं न बोलता हूँ और न लिखता हूँ और यही सीमाबोध मेरा बल है। मैं जीवनमें जो-कुछ भी कर पाया हूँ, उसका सबसे ज्यादा श्रेय इसी बात को है कि मुझे अपनी मर्यादाओंका ज्ञान है। मेरा काम कलाकारके कामसे भिन्न है इसलिए मुझे अपने क्षेत्रसे बाहर जाकर उसकी जगह नहीं लेनी चाहिए।

बापूजी, क्या आप यन्त्र मात्र के खिलाफ हैं?

ऐसा कैसे हो सकता है? जब कि मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी तो एक बहुत नाजुक यन्त्र ही है। चरखा तो खुद ही एक यन्त्र है और दाँत कुरेदने की एक छोटी-सी सींक भी तो यन्त्र ही है। मुझे यन्त्रोंपर नहीं, बल्कि उनके प्रति अन्ध-मोहपर आपत्ति है। यह मोह उन यन्त्रोंके लिए है जिन्हें वे श्रमकी बचत करनेवाले कहते हैं। इस तरह मनुष्य श्रमकी बचतके पीछे पड़ा रहता है और अन्तमें उसका परिणाम यह होता है कि हजारों लोग बेरोजगार हो जाते हैं और उनके लिए मारे- मारे फिरते हुए भूखकी पीड़ासे तड़प-तड़पकर अपने प्राण देनेके अलावा और कोई चारा नहीं रह जाता। मैं भी समय और श्रमकी बचत करना चाहता हूँ, लेकिन मुट्ठी भर लोगों के लिए नहीं, बल्कि सभी के लिए। सम्पत्तिका संचय मैं भी चाहता हूँ, किन्तु वह चन्द लोगों के हाथोंमें नहीं, बल्कि समस्त समाजके हाथोंमें चाहता हूँ। आज यन्त्रोंकी बदौलत चन्द लोग लाखों-करोड़ोंकी पीठपर सवार हैं। इस सबके पीछे प्रेरणा श्रमकी बचतकी और परोपकार-वृत्तिकी नहीं, बल्कि लोभकी ही है। इसी वस्तु-व्यवस्था के विरुद्ध मैं अपनी समस्त शक्तिसे जूझ रहा हूँ।

तब तो बापूजी, आप यन्त्रके खिलाफ नहीं, बल्कि उसके दुरुपयोगके खिलाफ, जिसकी मिसालें आज हम इतनी ज्यादा देख रहे हैं, लड़ रहे हैं?

मैं बेहिचक कहूँगा कि 'हाँ'; लेकिन इतना और जोड़ना चाहूँगा कि आज जो वैज्ञानिक तथ्यों और आविष्कारोंका उपयोग लोभको तुष्ट करने के साधनके रूपमें हो रहा है, सबसे पहले यह स्थिति समाप्त होनी चाहिए। उस हालत में श्रमिकोंपर कामका ज्यादा बोझ नहीं रहेगा और यन्त्र एक बाधाके बजाय सहायक साधन बन जायेगा। मैं यन्त्र-मात्रको समाप्त करनेका नहीं, बल्कि उसे सीमित करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ।

इसका तर्क-संगत निष्कर्ष तो यही होगा कि तमाम शक्तिचालित जटिल यन्त्रोंको समाप्त कर देना चाहिए।

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