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जी० रामचन्द्रन्के साथ बातचीत

मगर ब्रह्मचयंपर आपका यह आग्रह श्री एन्ड्रयूजको पसन्द नहीं है।

हाँ, मुझे मालूम है। उनका यह दृष्टिकोण प्रोटेस्टैंट पंथकी देन है। इस पंथको बहुत से सत्कार्योंका श्रेय है, लेकिन इसमें जो-कुछ दोष थे, उनमें से एक ब्रह्मचयंका उपहास करना भी था।

लेकिन ऐसा तो इसलिए हुआ कि इस पंथको, उस समयका पादरी-वर्ग जिन बुराइयोंमें डूबा हुआ था, उनसे लड़ना था।

लेकिन इन तमाम बुराइयोंका कारण यह तो नहीं था कि ब्रह्मचर्यमें कोई सहज दोष है। ब्रह्मचर्यके कारण ही कैथॉलिक पंथ आजतक फल-फूल रहा है।

रामचन्द्रन्का अन्तिम प्रश्न बहु-चर्चित 'कताई सदस्यता' के बारेमें था। उन्होंने गांधीजीको प्रारम्भमें ही यह बता दिया कि वे खुद तो कातते हैं, लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार किया कि शान्तिनिकेतनके अपने वो अन्य मित्रोंके साथ-साथ उन्होंने यह काम गांधीजीके उपवासका समाचार सुननेके बाद ही शुरू किया। उन्होंने यह भी कहा कि वे इस बातमें विश्वास रखते हैं कि कताई सबको करनी चाहिए। लेकिन, यह चीज उनकी समझमें नहीं आ रही थी कि कांग्रेसको अपने सदस्योंको इस कामके लिए क्यों मजबूर करना चाहिए। यहाँ तो जबरदस्तीसे नहीं, बल्कि समझाने-बुझानेके तरीकेसे काम लेना चाहिए।

अच्छा तो, इस विषयमें तो तुम श्री एन्ड्रयूजसे भी एक कदम आगे हो। वे भी यह नहीं चाहते कि कांग्रेस अपने सदस्योंको इसके लिए मजबूर करे; लेकिन कताई-सम्बन्धी नियमोंसे बँधे, स्वेच्छया कताई करनेवाले किसी संगठनके सदस्य वे खुशी-खुशी बनना चाहेंगे। तुमको तो शायद ऐसे किसी संगठनपर भी आपत्ति है?

रामचन्द्रन् चुप बैठे रहे।

अच्छा तो अब मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ। क्या कांग्रेसको ऐसा कहनेका कोई अधिकार है कि इसका कोई सदस्य मद्यपान न करे? क्या यह भी व्यक्तिकी स्वतन्त्रतापर रोक लगाना होगा? यदि कांग्रेस अपने सदस्योंपर मद्य-निषेधका नियम लादने के अधिकारका प्रयोग करे तो उसपर कोई आपत्ति नहीं होगी। क्यों? इसीलिए न कि मद्यपानकी बुराइयाँ जग-जानी हैं। तो मैं यह कहूँगा कि आज भारतमें, जहाँ करोड़ों लोग भुखमरीके किनारेपर खड़े हैं और दुःखके सागरमें डूबे हुए हैं, विदेशोंसे कपड़ेका आयात करना शायद अधिक बड़ी बुराई है। जरा उड़ीसा के लाखों क्षुधा-पीड़ित लोगोंका खयाल करो। जब मैं वहाँ गया था, मैंने वहाँके अकाल पीड़ित लोगोंको देखा था। एक नेक पुलिस सुपरिटेंडेंट के सौजन्यसे, जो एक उद्योगशाला चलाते थे, मैंने उन अकाल पीड़ितोंके स्वस्थ, प्रसन्न और हँसमुख बच्चोंको भी देखा, जो दरी, टोकरी वगैरह बनाने में जुटे हुए थे। वहाँ कताई नहीं हो रही थी, क्योंकि उस समय वहाँ इन दूसरे कामोंका बड़ा प्रचलन था। लेकिन, उनकी मुखाकृतिसे श्रमके आनन्दकी आभा छिटक रही थी। लेकिन, अकाल पीड़ितोंके बीच आकर मैंने क्या देखा? वे हड्डी-चमड़ीके ढाँचे मात्र रह गये थे; उन्हें देखकर यही लगता था