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२१५. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको

आश्विन बदी ९
[ २२ अक्तूबर, १९२४ ][१]

चि० तारामती के बारेमें पढ़कर दुःख हुआ।[२] उसे कष्ट हुआ और आनन्दको बड़ा कष्ट हुआ होगा, यह सोचकर मनको बड़ा क्लेश पहुँचा। जन्म-मरणके विषयमें तो मैं इतना उदासीन हो गया हूँ कि उसका असर मुझपर शायद ही होता हो। जैसे-जैसे सोचता हूँ, जन्म और मरण मुझे एक ही वस्तुके दो रूप जान पड़ते हैं। अभी कल ही अनायास एक वाक्य पढ़नेको मिला 'मनुष्य तू मृत्युसे क्यों दुःखी होता है? मरणोपरान्त तो आत्माको सद्गति ही मिलती है। क्या तू विचार करके इतना भी नहीं देखता कि आत्मा नहीं मरती।' बुद्धि यह सब स्वीकार करती है, लेकिन बहुत बार हृदय स्वीकार नहीं करता, यही कठिनाई है। बल तो हृदयका ही सच्चा है। बुद्धि तो तुच्छ लगती है। बुद्धि कहे कि मुझे तुमसे प्रेम है, लेकिन हृदय स्वीकार न करे तो बुद्धिका कहा किस कामका?

[ गुजरातीसे ]
बापुनी प्रसादी


२१६. पत्र: ना० मो० खरे को

आश्विन वदी ९ [ २२ अक्तूबर, १९२४ ][३]

भाई पण्डितजी

कहा है। भला हमारी क्या आपका पत्र आपकी सावधानीका आपका सुन्दर पत्र मिला। भक्त होना क्या कोई आसान बात है? तुलसीदासने अपने आपको शठ और सूरदासने पापी और अपंग कहा है। फिर भला हमारी क्या बिसात? हम सावधान रहें, इतना ही काफी है। आपका पत्र आपकी सावधानीका सूचक है। सँभलकर चलनेवाला और अपने आपको धोखा न देनेवाला व्यक्ति आगे बढ़ता ही जायेगा, क्योंकि वह हमेशा अपनी भूलोंकी ओर नजर रखता हुआ उनसे बचनेका प्रयत्न करता रहता है।

बापूके आशीर्वाद

भाई पण्डितजी
सत्याग्रह आश्रम, साबरमती

गुजराती पत्र ( सी० डब्ल्यू० २५४ ) से।

सौजन्य: लक्ष्मीबाई खरे

  1. साधन-सूत्र में दी गई तारीख के अनुसार।
  2. तारामतीने एक मृत शिशुको जन्म दिया था।
  3. डाककी मुहरसे।