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२१७. तार: चक्रवर्ती राजगोपालाचारीको[१]

[ २२ अक्तूबर, १९२४ या उसके पश्चात् ]

आपको डाकसे विवरण-सहित एक हजार भेज रहा हूँ।

अंग्रेजी प्रति ( एस० एन० १०३२२ ) की फोटो-नकलसे।

२१८. प्रेमका नियम

एक भाईने मुझसे कहा है कि जहाँ मैं स्वराज्यवादियों, लिबरलों तथा अन्य लोगोंको खुश करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ वहाँ ऐसा लगता है कि अपरिवर्तनवादियोंका त्याग करता जा रहा हूँ और मुझमें जो परिवर्तन हो रहा है, उससे वे चकितसे हैं। इन भाईका कहना है कि मैं अपरिवर्तनवादियोंके दृष्टिकोणसे अपनी स्थिति बताऊँ और मेरे रवैयेमें जो परिवर्तन होता दीख रहा है, उसे समझाऊँ। उनका अनुरोध है कि बम्बईमें एक्सेल्सियर थिएटरकी सभामें मैंने सहयोग अथवा सत्याग्रहके जिस सौम्य पक्षकी रूप-रेखा बताई थी[२], उसकी स्पष्ट व्याख्या करूँ।

स्थितिको स्पष्ट करनेके लिए सबसे पहले तो मैं यह बता देना चाहता हूँ कि मेरे अपने विचारोंमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। अहिंसात्मक असहयोग और उससे फलित बहिष्कारोंमें अब भी मेरा पूरा विश्वास कायम है। लेकिन अब मैं दिनके उजालेकी तरह साफ-साफ देख रहा हूँ (मगर उस दिन जुहू तटपर नहीं देख पाया था) कि देशने कुल मिलाकर अहिंसाका मर्म और इसलिए उसके सामने जो असहयोग प्रस्तुत किया उसका मर्म भी नहीं समझा है। इसलिए मैं इस चीजको भी उतना ही साफ-साफ देख रहा हूँ कि यदि असहयोगको, उसके प्रभावकारी सिद्धान्त अहिंसा के बिना जारी रखा गया तो उससे देशकी हानि होगी। बहुत-कुछ हानि तो यह कर चुका है, क्यों कि इसके कारण देश परस्पर विरोधी दलोंमें विभक्त हो गया है। इन परस्थितियों में राष्ट्रीय कार्यक्रमके रूपमें असहयोगको कुछ कालके लिए स्थगित ही कर देना चाहिए। असहयोगका उद्गम सत्याग्रह है और सत्याग्रह और कुछ नहीं, प्रेम है। संसार प्रेमके नियमसे ही संचालित होता है--हम इस नियमको कोई दूसरा नाम भी दे सकते हैं; बस यह याद रखना है कि यह ऐसा तत्व है जो हमें एक-दूसरे के प्रति खींचता है और हमें बाँधकर एक बनाता है। मृत्युके रहते हुए भी जीवनका प्रवाह कायम है। ध्वंसका क्रम निरन्तर चल रहा है पर उसके बावजूद

  1. यह २२ अक्तूबरको प्राप्त निम्नलिखित तारके उत्तरमें भेजा गया था: "सत्याग्रह निधिमें से वाइकोमके लिए एक हजार मासिक देनेकी सिफारिश करें। तत्काल आवश्यक है।
  2. देखिए "भाषण: एक्सेल्सियर थिएटर बम्बईमें", ३१-८-१९२४।