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२२८. पत्र: लाला लाजपतरायको

( पिछले पत्रके सिलसिले में )[१]

२८ अक्तूबर, १९२४

प्रिय लालाजी,

आपको पहला पत्र लिखनेके बाद वाइसरायके निजी सचिवने मुझे सूचित किया है कि कोहाटकी वर्तमान अवस्थाको देखते हुए मुझे वहाँ जानेकी अनुमति नहीं दी जा सकती। मैं सारे पत्र-व्यवहारको शीघ्र ही प्रकाशित करनेकी आशा करता हूँ। अब मुझे क्या करना चाहिए? मेरा खयाल है, अब रावलपिंडीमें मेरा कोई उपयोग नहीं रह गया। मैं बेचारे शरणार्थियोंको कोई तसल्ली तो दे नहीं सकता। मेरे सामने अब सवाल यह है कि हिन्दू-मुस्लिम प्रश्नके सम्बन्धमें मुझे पंजाब अभी जाना चाहिए या बादमें, इसका निर्णय आप ही करें।

बंगालमें स्थिति कितनी विषम है। पता नहीं ३० तारीखको यहाँ स्वराज्य परिषद्की बैठक हो रही है या नहीं। मुझे अबतक तो मोतीलालजीका कोई पत्र नहीं मिला है। श्री दास कल कलकत्ता चले गये।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

अंग्रेजी पत्र ( एस० एन० १५९३८ ) की फोटो-नकलसे।

२२९. पत्र: वसुमती पण्डितको

कार्तिक सुदी २ [ २९ अक्तूबर, १९२४ ][२]

चि० वसुमती,

तुम्हारा पत्र मिला। मेरे हजारों आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ हैं। मैं तुम्हारे लिए सुखकी कामना नहीं करता, लेकिन यह कामना अवश्य करता हूँ कि तुममें दुःखको भी सुख माननेकी शक्ति आये। सुख किसे कहना चाहिए, यह कौन जानता है। जो दुःख प्रतीत होता है, कौन जाने, वही सुख हो। इस भावका एक श्लोक है, जिसका अर्थ यह है कि विपत्ति विपत्ति नहीं है, सुख सुख नहीं है; ईश्वरका

  1. देखिए "पत्र: लाजपतरायको", २७/२८-१०-१९२४।
  2. डाककी मुहरसे। कार्तिक सुदी २, वि० सं०, ३०-१०-२४ को पड़ी थी । इसलिए यह गलत मालूम पड़ती है । यहाँ " कार्तिक सुदी १ " होना चाहिए था।