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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनमें से कुछके शरीरमें तो, जब उन्हें लाया गया था, हड्डी-चमड़ीके अलावा और कुछ रह ही नहीं गया था।

इसके बाद वे मुझे उस पवित्र पुरातन मन्दिरके बिलकुल पासके एक खुले क्षेत्रमें ले गये, जहाँ पुरीके इर्द-गिर्दके बारह मीलके भीतरके इलाकेमें रहनेवाले अकाल पीड़ित लोग इकट्ठे किये गये थे। व्यवस्थाके लिए उन्हें पंक्तियोंमें बाँट दिया गया था। उनमें से कुछकी जानें तो बेशक गुजरातियोंके दान और अमृतलाल ठक्करकी प्रेमपूर्ण सेवाके कारण ही बची थीं। ठक्करने गुजरातियोंसे प्राप्त पैसेसे चावल खरीदकर इनके बीच बाँटा था। उनकी प्राण-शक्ति क्षीणसे-क्षीणतर होती जा रही थी। वे निराशाकी जीती-जागती तसवीरें थे। आप उनकी पसलियाँ आसानीसे गिन सकते थे, एक-एक नस साफ देख सकते थे और माँसपेशियाँ और माँस तो दिखाई ही नहीं दे रहा था। जो-कुछ देख सकते थे, वह सिर्फ झुलसी, झुर्रीदार चमड़ी और हड्डियाँ ही थीं। उनकी आँखोंमें कोई चमक नहीं थी। ऐसा लगता था, मानो वे मरना चाहते हों, उन्हें जो मुट्ठी-भर चावल मिल जाता था, उसके अलावा और किसी चीजमें उनकी कोई रुचि नहीं थी। पैसेके लिए काम करने को भी वे तैयार नहीं थे। शायद प्रेमवश तैयार हो जाते। कुछ ऐसा लगता था, मानो वे खाने और जीनेकी जिल्लत उठानेको भी तभी तैयार थे, जब आप स्वयं उन्हें मुट्ठी भर चावल दे देते। ये पुरुष और स्त्रियाँ, हमारे ये भाई और बहन, तिल-तिलकर घुलते हुए धीरे-धीरे मौत के मुँहमें जा रहे हैं---यह मेरे जानते सबसे ज्यादा दुःखद घटना है। उनकी किस्मतमें सतत उपवास ही बदा हुआ है और जब वे कभी-कभी मुट्ठी भर चावल पाकर अपना उपवास तोड़ते हैं तो ऐसा लगता है मानों वे, हम जो आरामकी जिन्दगी जी रहे हैं, उसका उपहास कर रहे हों।

सुपरिंटेंडेंट से मैंने पूछा: "इन लोगोंको अनाथोंकी तरह क्यों नहीं रखा जा सकता?" "वे काम नहीं करेंगे और न वहाँ रहनेको ही तैयार होंगे"---यह था सुपरिटेंडेंटका जवाब। वे शायद इतना और कह सकते थे कि अगर ये हजारों स्त्री-पुरुष काम करनेको तैयार भी हो जायें तो भी इन सबके लिए किसी अनाथाश्रममें व्यवस्था कर सकना मेरे लिए सम्भव नहीं है।

चिरकालसे भूखकी ज्वालामें तड़पते रहने और तिल-तिलकर मरनेकी यह समस्या भारतके अलावा दुनियाके और किसी देशमें नहीं है। मनुष्यको उसकी समस्त जातीय गरिमासे वंचित करनेकी यह प्रक्रिया और कहीं नहीं दिखाई देती। इसलिए इसका समाधान भी मौलिक होना चाहिए। इस समाधानको ढूँढनेके लिए हमें इस भारी दुर्घटना के कारणोंका पता लगाना होगा। ये लोग भूखकी ज्वालामें इसलिए तड़प रहे हैं कि बाढ़ अथवा वर्षाकी कमीके कारण उड़ीसामें वर्षोंसे अकालकी स्थिति है, उनके पास कठिन समयमें सहारा देनेवाला और कोई धंधा नहीं है। इसलिए वे बराबर बेकार रहते हैं। यह बेकारी इतने दिनोंसे चली आ रही है कि उन्हें बेकार रहनेकी आदत पड़ गई है। उड़ीसा के हजारों लोगोंके लिए बेकारी और भुखमरी एक आम स्थिति हो गई है। लेकिन, जो बात उड़ीसा के साथ लागू होती है, वही बात कुछ कम पैमानेपर भारत के दूसरे बहुत-से हिस्सोंपर भी लागू होती है।