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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि अंग्रेजोंके हित भारतीयोंके हितों के विरुद्ध कैसे हैं। लंकाशायरकी मिलें भारतकी आर्थिक प्रगतिके लिए सबसे अधिक बाधक हैं। स्पष्ट है कि भारतके हितका तकाजा है कि वह लंकाशायरका या कोई भी अन्य विदेशी कपड़ा या सूत गज-भर भी न मँगाये। लेकिन, लंकाशायरके मिल-मालिक राजीखुशीसे और बिना संघर्षके भला इस अनैतिक व्यापारको क्यों छोड़ेंगे? मैं इसे अनैतिक इसलिए कहता हूँ कि इसने भारतीय किसानोंको बरबाद कर दिया है और उन्हें भुखमरी के कगारपर लाकर छोड़ दिया है। भारतको मोटी-मोटी तनख्वाहें पानेवाले अंग्रेज अधिकारियोंके एक विशाल वर्गका असह्य खर्च उठाना पड़ता है। स्पष्टतः उसके हितका तकाजा है कि ये अधिकारी चाहे जितने भी कार्य-कुशल हों, इनके स्थानपर भारतीयोंको ही रखा जाये, चाहे वे कितने भी अकुशल क्यों न हों। आदमी उधारके फेफड़ेसे साँस नहीं ले सकता। भारत अंग्रेज सिपाहियोंके लिए प्रशिक्षण-स्थलका काम करता है और इसलिए भारत सरकारके सम्पूर्ण राजस्वके अर्धाशसे भी अधिकको खपा लेनेवाले फौजी बजटके लिए पैसा जुटानेको करके रूपमें उसका रक्त -शोषण ही किया जाता है। यहाँ फिर भारतके हितका साफ तकाजा यह है कि वह अपनी रक्षा आप ही करना सीखे---भले ही फिलहाल वह यह काम भी ठीकसे नहीं कर पाये। वह अपनी बाह्य या आन्तरिक सुरक्षा के लिए विदेशियोंपर---वे विदेशी चाहे जितने भी समर्थ और नेकनीयत हों--निर्भर करे, इसका मतलब अपना तीन-चौथाई पौरुष गँवा देना है।

जो उचित है, उसे करनेके लिए अंग्रेज ज्यादा अच्छी स्थिति में हैं; क्योंकि वे शासक हैं। जो लोग सरकारी नौकरीमें नहीं हैं उन्हें--अर्थात् सामान्य अंग्रेज स्त्रियों और पुरुषोंके विशाल समुदायको---अंग्रेजी हुकूमतके भयंकर परिणामोंको समझना चाहिए। कहते हैं, शान्ति और सुरक्षा अंग्रेजी हुकूमतका सहज वरदान है। किन्तु, यह वरदान स्वतन्त्रता के अपहरण और निरन्तर बढ़ती गरीबीके मुकाबले कुछ नहीं है। वाइसरायने अपनी कार्रवाईका बड़ा लम्बा-चौड़ा कारण बताया है। लेकिन, फिर भी मैं कहूँगा कि परमश्रेष्ठ अपनी स्वेच्छाचारितापूर्ण कार्रवाइयोंका औचित्य सिद्ध नहीं कर पाये हैं। बेशक हिंसात्मक कार्रवाई करनेवालोंको सजा दी जानी चाहिए। मैं अराजकताका पक्ष-पोषक नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि इससे देशकी कोई भलाई होनेवाली नहीं है। लेकिन, अपराध करनेके लिए या अपराध करनेका प्रयत्न करने के लिए सजा देना एक बात है और अधिकारियोंको बिना वारंटके और सो भी सिर्फ सन्देहपर किसीको गिरफ्तार करनेका मनमाना अधिकार देना बिलकुल दूसरी बात है। अभी जो कुछ हो रहा है, वह इतना ही है कि सन्दिग्ध लोगोंको आतंकित किया जा रहा है। लेकिन, पिछला अनुभव बताता है कि जब कभी सरकार उतावलेपन और घबराहटमें कोई काम करती है तो दोषी लोगोंसे कहीं अधिक संख्यामें निर्दोष लोग ही सजा पाते हैं। हर व्यक्तिको मालूम है कि पंजाबमें १९१९ में [१] जिन लोगोंको सजा दी गई उनमें बहुत ज्यादा संख्या ऐसे लोगोंकी थी जिन्होंने कभी भी वे अपराध किये ही नहीं थे, जिन्हें करनेका उनपर आरोप लगाया गया था। जब-कभी कोई

  1. साधन-सूत्रमें '१९१८' है।