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सफलताकी कुंजी

रकम तो उसको दे ही दो लेकिन अपने कुसूरके प्रायश्चित्त स्वरूप उसे थोड़ी रकम और दो। इस अपूर्व बर्तावका परिणाम ऐसा हुआ कि जिसकी हजरत उमरने उस वक्त जरा भी आशा न की थी। कहा जाता है कि उस यहूदीने इस्लाम-धर्म स्वीकार कर लिया। इसी पाठमें एक गैर-मुस्लिमकी बात भी आती है। एक बार पैगम्बर साहबको एक पेड़के नीचे अकेले, बिना हथियार सोते देख, एक शख्स उनके पास गया और कहने लगा---'बोल, मुहम्मद! इस वक्त तुझे कौन बचा सकता है?' उत्तर मिला--'अल्लाह'। वह थर-थर काँपने लगा, उसके हाथसे तलवार गिर पड़ी। पैगम्बर साहबने तलवार उठा ली और फिर उससे पूछा--'अब तू कह, तुझे कौन बचा सकता है? उस नास्तिकने काँपते -काँपते जवाब दिया 'तेरे सिवा कोई नहीं।' पैगम्बर साहबने उसकी जान नहीं ली, उदारतासे उसे माफी बख्श दी। वह गैर-मुस्लिम उसी क्षण मुसलमान बन गया।

शत्रुओं और विरोधियोंके प्रति नम्रताके ये एक-दो उदाहरण ही नहीं हैं। मौलाना शिबलीके लिखे पैगम्बर साहबके जीवन-चरितमें ऐसे बड़े-बड़े प्रसंगोंके वर्णन हैं। तबलीग या शुद्धिका तरीका बताते हैं--आदर्श आचरण। यही मेरे नम्र विचार के अनुसार सच्चा और उचित धर्म प्रचार है। आदर्श आचरण द्वारा प्रचार करना ही निर्दोष, निष्कलंक, अचूक और समर्थ प्रचार है।

केवल यह दिखाने के लिए मैं यह नहीं लिख रहा हूँ कि किस तरह प्रचार करना चाहिए। मेरा उद्देश्य तो है पैगम्बर साहबके जीवनसे सबको शिक्षा ग्रहण कराना। यदि हम हार्दिक एकता स्थापित करना चाहते हैं तो पैगम्बर साहबकी क्षमाशीलता और सहिष्णुताका अनुकरण करना होगा।

यदि इस लेखको पढ़नेवाले हिन्दू-पाठकोंपर पैगम्बर साहबके जीवन-प्रसंगोंका असर न हो तो उन्हें 'रामायण' और 'महाभारत' के पन्ने उलटने चाहिए। उसमें उन्हें उदारतायुक्त सहिष्णुताके अनेक उदाहरण मिल जायेंगे। हमें बड़े-बड़े विधि-निषेधात्मक प्रस्तावोंकी आवश्यकता नहीं है। अपने स्वार्थको लक्ष्य बनाकर बात करनेकी भी जरूरत नहीं है। हम लोग यदि केवल अपने-अपने धर्मोके मूल तत्त्वोंके अनुसार ही काम करें तो हम समझ जायेंगे कि गत दो वर्षोंमें हममें से कितने ही लोग धर्म-द्रोही और ईश्वर-द्रोही बन गये हैं। एक-दूसरेपर अपना अधिकार करनेके लिए बल-प्रयोग करके हम स्वयं अपनी आत्माके साथ बलात्कार कर रहे हैं। दोनों कौमें अपना कर्तव्य करने के बजाय, कर्त्तव्य-पालनके द्वारा अधिकार प्राप्त करनेके बजाय, केवल अधिकारपर ही जोर दे रही हैं और अपना कर्त्तव्य भूल गई हैं।

भारतवर्ष एक पक्षी है। हिन्दू और मुसलमान उसके दो पंख हैं। आज ये दोनों अपंग हो गये हैं और पक्षी आकाशमें उड़कर स्वतन्त्रताकी आरोग्यप्रद, शुद्ध हवा लेने में असमर्थ हो गया है। इस प्रकार देशको अशक्त-असमर्थ बना देना न हिन्दुत्वका सिद्धान्त है, न इस्लामका। क्या मुसलमानोंको दुर्बल बना देना हिन्दुओंका धर्म है? क्या हिन्दुओंको दुर्बल बना देना मुसलमानोंका और मुसलमानोंकी मदद न करना हिन्दुओंका धर्म है? क्या धर्मको स्वातन्त्र्य और मानवकी सभी उत्तमोत्तम उपलब्धियोंका विनाश करके एक विनाशकारी शक्ति बनना चाहिए? हिन्दू हो या